पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७१४

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+ ++40 - जान "44 भक्तिसुधास्वाद तिलक । बरात देखा, अपने धनाब्यपने का अभिमान छोड़, ब्राह्मण के चरणों में सीस नवाके कहने लगा कि "अब मेरी लज्जा मर्यादा आपही के रखने से रह सकती है।" ब्राह्मणजी बोले कि चलो, सजल नेत्र प्रेम से श्री- नरसीजी के चरणों को पकड़के कहो कि “मेरी लज्जा आपके अधीन है, मर्यादा आपके ही हाथों में है आपके रक्ले रह सकती है, दया कीजिये अपना दास जानिये। उसने ऐसा ही किया । नरसीजी ने समधी (सम्बन्धी) को उठा- के, अंक भर मिलके, लाके श्रीप्रभु के मुखचन्द्र का दर्शन करवाया। प्रभु ने आज्ञा दी कि "तुम निशंक रहो, बरात के सत्कार का भार भी नरसी ही को है; तुम केवल कन्यादान मात्र करदो ।” फिर दोनों ओर का सँभार श्रीप्रभु ही ने किया। बड़े आनन्द और धूमधाम से विवाह कर श्रीनरमीजी के घर आकर ऐश्वर्य सहित आप अन्तर्धान हो गये। नरसीजीब्याह कर कराके आये तो, परंतु अपनी भक्तिभाव ही में अधिकतर लिपटे रहे। भगवद्भक्त का यश संसार में प्रसिद्ध हुआ। आपके गुण जितने हम जानते थे, उतने ही गान किये, इन गुणों को सुन सुन के जीना योग्य है । (१४३) श्रीदिवदास पुत्र श्रीजसोधरजी। (५६४) छप्पय । (२७९) "दिवदास” बंस "जसोधर' सदन भई भक्ति अन- पायनी । सुत कलत्र संमत सबै गोबिन्द परायन । सेवत हरि हरिदास द्रवत मुख "राम-रसायन । सीतापति को सुजस प्रथम ही गवन बखान्यौ । है सुत दीजै मोहि । कवित सबही जग जान्यौ । गिरा गदित लीला मधुर, संतनि आनँददायनी । "दिवदास" वंस "जसोधर" सदन भई भक्ति अनपायनी॥ १०६ ॥ (१०५) श्रीनरसी मेहताजी का समय, संवत् १६०० से बरंच १५५० से १६५३ तक के भीतर निश्चय हे॥