पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- +- and- - - - - धीभक्तमाल सटीक । कलंक लागै भारियै । राना देसपती लाजे, बाप कुल रती जात, मानि लीजे बात बेगि संग निरवारिय” ॥ "लागे भान साथ संत, पावत अनंत सुख, जाको दुख होय, ताको नीके करि टारिये । सुनिक, कटोरा भरि गरल पठाय दियौ, लियो कार पान रंग चढ़यौ यो निहारियै ।। ४७५॥ (१५४) वात्तिक तिलक। मीराजी का भजन साधु संग देख एक दिन राना की कन्या (उदावाई) श्राके शिक्षा करने लगी कि “भाभी। (भावज) तुम चेत नहीं करती हो, साधुओं से प्रेम करने से बड़ा भारी कलंक लगता है, तुम्हारी रीति देख देश-पति राना लज्जित होता है, तुम्हारे पिता के कुल की भी मर्याद जाती (नष्ट होती) है, मेवाड़ और जोधपुर दोनों की हँसी होती है, मेरी बात मानकर अभी अभी बैरागियों का संग बोड़ दो।" वह समझाकर हार थकी पर आपने उत्तर दिया कि "मैं संतों के संग से अनंत सुख पाती हूँ, इससे संत लोग मेरे प्राणों के साथ हैं, जिसको लाज और दुख हो, उसको तुम छुड़ाओ अथवा जिसको दुख लगे सो मेरे पास न आवै ॥" निदान इस वार्ता को जब राना ने सुला, तब एक कटोरा भर महा- विष तुलसी छोड़ "चरणामृत" कहकर भेज दिया। आपने सीस चढ़ा प्रसन्नतापूर्वक पान कर लिया। कुछ व्यतिक्रम होने की तो बात ही क्या ? बरंच आपके हृदय में प्रेम रंग की प्रभा चढ़ गई और मुख की छवि अत्यन्त बढ़ गई ॥ . ___ उस समय जो पद गाया था उसकी पहिली कड़ी यह है:- "राना जी जहर दियो, हम जानी।" (५९१) टीका । कवित्त । (२५२) गरल पठायो, सो तो सीस लै चढ़ायो, संग त्याग विष भारी, ताकी झार न सँभारी है। राना नै लगायौ चर, बैठे साधु टिग टर, । तब ही खबर कर, मारी यहै धारी है। राज गिरिधारीलाल, तिनहीं। सों रंग जाल, बोलत हँसत ख्याल, कानपरी प्यारी है। जाय के