पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७३९

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७२० श्रीभक्तमाल सटीक। है। लोटके अपनासा मुँह लिये चला आया, कुछ मन में विस्मित हुया, पर प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर भी प्रीतिभाव कुछ मन में नहीं बैठा, पैठे कैसे? विना प्रभु तथा हरिभक्तों की कृपा के भक्तिभाव कोई कैसे पा सकता है? (५९३ ) टीका । कवित्त । ( २५०) विषई कुटिल एक भेष धरि साधु लियो. कियौ यो प्रसंग "मोसों अंग संग कीजिये । आज्ञा मोंको दई श्राप लाल गिरिधारी," "अहो सीस धरि लई, करि भोजन हूँ लीजिये" ।। संतनि समाज में विकाय सेज बोलि लियो, “संक अब कौन की निसंक रस भीजिये । सेत मुख भयो, विषभाव सब गयो, नयो पाँयन 4 आय, "मोकों भक्तिदान दीजिये" ।। ४७८ ॥ (१५१) वात्तिक तिलक। एक दिन की विचित्र वार्ता सुनिये, एक कुटिल विषई पापी दुष्ट साधु का भेष धारण किये हुए भाके मापसे बोला कि "मुझे गिरिधर- लाल ने स्वयं आज्ञा दी है कि "तुम जाके भीरा को पुरुष संग का सुख दो," सो तुम मुझसे भंग संग करो।" श्रीमीराजी ने उत्तर दिया कि "आज्ञा मेरे सीस पर है, प्रथम भाप प्रसाद भोजन तो कर लीजिए, मैं सेवा को उपस्थित हूँ॥" आप संतों के समाज के मध्य में सेज बिछवाकर उस विषई से बोली कि “आप इस पर्यंक पर सुखपूर्वक विराजिये और मुझे जो आज्ञा हो, जब प्रभुकी आज्ञा है ही तो अब किसकी शंका है ? आइये निशंक रस रंग में डब के अंग संग कीजिये। श्रीमीराजी के वचन सुन उसका मुख फीका पड़गया, और। "उसके तो रही न जान तन में । काटो तो लहू न था बदन में ॥" (नसीम) विषयभाव तज, आपके चरणों में पड़ गिड़गिड़ाने और कहने लगा कि “मुझे अब हरिभाक्ति दान दीजिये ।" आपने कृपादृष्टि से देख,