पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९७

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७७६ +++ + ++ I N TIN- Pakiraniamrartundree+ श्रीभक्तमाल सटीक । मैं चेरि तेरी तेरा दिया सब । गुण गा सकूँ तेरा मैं पिया कव ॥ जनकलली के पदकमल, जेहि उर करहीं ठौर । तेहि उर राजहिं अवश्य श्रीरामरसिक शिरमौर । जय जानकि मम स्वामिनी,जय स्वामीसियनाह । सियसहचारि नित चाहती, लली खाल की चाह ॥ वात्तिक तिलक । एक समय कोई धनी मनुष्य लक्षावधि की सम्पत्ति भेट देने को लेकर श्री "गोकुलनाथजी के समीप आया, आपके बोलने की बासुरी में मेरी मति रीझ गई कि उससे पूछा "किसी में तेरा इस प्रकार का स्नेह है कि जिसके मिजे विना तेरे तन मन में व्याकुलता हो जाय ! यदि हो तो हम तुझको दीक्षा देई" वह बोला कि “मेरा किसी वस्तु में किंचित् भी स्नेह नहीं है।" सुनकर उत्तर दिया कि "हम तुझे शिष्य नहीं करेंगे, तू अपने लिये और गुरु कहीं ढूंढ़ ले, क्योंकि हमारे भक्तिमार्ग में एक प्रेम ही प्रेम की वार्ता है, जो उसके प्रेम पदार्थ होवे तो शिष्य कर उसको संसार की ओर से, कल सरीखे, पलटके प्रभु में लगा दे, और जो तेरे हृदय में प्रेम का वीन ही नहीं है, तो श्रीभक्तिरूपी वृक्ष कहाँ से उत्पन्न हो?" श्रापका उत्तर सुन वह दुखी होकर, चला गया । वह शून्य हृदयवाला प्रभु के प्रेमरंग में कैसे भीजै ? (६५२) टीका । कवित्त । (१९१) कान्हा हो हलोलखोर, घोरि दियो मन लेक स्याम रससागर मैं नागर रसाल है । निसि को सुपन माँझ, निपुन श्रीनाथजने, आना दई, "भीत नई भई पोट साल है ॥ गोकुल के नाथन सों इसके पूर्व छप्पय की टिप्पणी देखिये । "विट्ठल वश कल्यान के शिष्य सरेनि सद्गुण निकर ।। इ." यह एक छप्पय किसी छपी पोथी मे है. परन्तु पुरानी किसी प्रति मे मही पाया जाता । मूल ८० देखिये आप सात भाई थे, श्रीविठ्ठलनाथजी की कथा देखिये, पाँच वर्ष तक आप श्रीभगवत आवेश विभूति थे। १ हो था । २"हलालखोर" TAJA-=भगी । ३ भई हुई ।