पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९८

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७७९ + 4 + 0- भक्तिसुधास्वाद तिलक । वाग दै जताइ दीजै कीजै याहि दूर छवि पूर देखौ ख्याल है'!" भोर जो विचार, नहिं धीरजको धौर, “उहाँ जाऊँ कोऊ मार, पढ़ें पलो यह लाल है" ।। ५२० ॥ (१०६) वात्तिक तिलक ! श्रीगोकुलनाथजी ने देखा कि श्रीगोवर्द्धननाथजी के मंदिर के सामने खड़े होकर बहुत नीच लोग भी दर्शन करते हैं, इससे सामने एक भीत की आड़ खिंचवा दिया । एक "कान्हा जात का भंगी था, परन्तु उसने अतिनागर रसाल श्यामसुन्दररूपी सागर में अपना मन मिला दिया। वह नित्य आता दर्शन करता था पर उस भीत के बनने से अब उसको दर्शन मिलना रुक गया, इससे वह बड़ा व्याकुल हुा । तब प्रेमप्रवीण श्रीनाथजी ने रात्रि को स्वप्न में उसको आज्ञा दी कि "यह जो नवीन भीत ओट करनेवाली हुई है सो हमारे मन में सालती है इससे तू गोकुलनाथजी से कहदे कि इसको शीघ्र गिरवा दें हम अपने सामने सब शोभा से पूर्ण कौतुक देखा करें। उसने प्रभात में कहने का विचार किया, परन्तु धैर्य न हुआ, डर गया, कि मैं कहने जाऊ" तो कोई मारेन, और ये लालजी मेरे पैंड़े पड़े है मुझको पुनः पुनः आज्ञा देते हैं।" "धन्य धन्य भंगी बड़ भागी । जगतपूज्य हरिपद अनुरागी॥" (६५३) टीका । कवित्त । (१९०) ऐसे दिन तीन आज्ञा देते वे प्रवीननाथ, हाथ कहाँ, मेरे विन काज नहीं सरगौ । गए द्वार द्वारपाल बोले, "जू विचार एक दीजै सुधि कान.” सुनि खीमे “वात करैगों" || काहूने सुनाय दई, लीजिये बुलाय "अहो कहो,” और “दूर करौं," करे दूरि ढरैगो । जाय वही कही, लही अपनी पिछानि, मिले, सुन्यो “मेरो नाम स्याम कह्यो, नहीं टरैगों" ॥ ५२१ ॥ (१०८) वात्तिक तिलक । प्रेम में प्रवीण श्रीनाथजी ने कान्हा को इसी प्रकार स्वप्न में