पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८०२

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Re- 40 MAHA- 24tana भक्तिसुधास्वाद तिलक । ७८३ 'ही आपने भी सरसे धनादि लेकर साधुसेवा के समय में त्याग किया और सुन्दर शील सुमाव से युक्त, सदा संतसेवा का व्रत धारण निकख (कसौटी) में जैसे उत्तम सुवर्ण की परीक्षा हो जाती है, इसी प्रकार गुरुसेवाधर्म में आपका निर्वाह हो जाने से विश्व में बड़े गुरुसेवक विदित हुए। आपने श्री “श्रीमल्हनी और श्रीरामरावलजी" की कृपा 'से, आदि से अंत तक धुकती अर्थात् प्रभु के ओर झुकती ही दशा को धारण किये रहे। । श्रीरामरावलजी, श्रीअल्हजी के शिष्य और श्रीराघवदासजी के गुरु है। (१६६)श्रीबावनजी। (६५७) छप्पय । (१८६) हरिदास भलप्पन भजन बल, "बावन" ज्यों बढ्यौ “बावनौ” ॥ अच्युत कुल सौ दोष सुपनेहूँ उर नहिं आने । तिलक दाम अनुराग सबनिगुरु जनकरि मानै ॥ सदन माहिं बैराग्य बिदेहिन कीसी माँती। रामचरण मकरंद रहित मनसा मदमाती ॥ "जोगा- नंद” उजागर वंश करि, निसि दिन हरि गुन गावनी॥ हरिदास भलप्पन भजन बल, “बावन” ज्यों बढ़यौ "बावनौ" ॥१३६॥ (७८) वात्तिक तिलक। श्रीहरिभक्तों के भलप्पन (कृपा) से, तथा श्रीसीताराम भजन के बल से हरि के दास "श्रीवावनजी” भी साधुत्व स्वरूप से श्रीवावन भगवान के समान बढ़े । अच्युतगोत्री वैष्णवों में, दैवयोग कोई दो हो भी तथापि आप स्वप्ने में भी उन दोषों को अपने हृदय (१) इस छप्पय के अर्थ करने में बहुतो ने विशेषण हरिदास शब्द को ही भक्त का नाम माना है, और "दावन" शब्द के दो बेर होते हुए भी उस पर पूरा ध्यान नही दिया । (२) दोहा "कामी साघुहि 'कृष्ण' कहि, लोभी 'बावन' जानि । क्रोधी को 'नरसिंह' कहि, नहीं भक्त की हानि ॥१॥"