पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८०९

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७९० 9APH 4- 0 4 - 4 -1 नन- -. . .. -11-MAR AN श्रीभक्तमाल सटीक तू कहाँ चली गई थी भला आज दर्शन दिया, बैठ जा।” उस दुष्टा के वचन सुन श्रोता लोग कहने लगे कि “यह झूठी बात कह रही है इसको हम मार डालेंगे। आपने कहा कि “यह सत्य कहती है।" श्रोता लोग सुन तन मन से अति दुखी हुए। (६६५) टीका | कवित्त । (१७८) फटि जाय भूमि तो समाय जायँ श्रोता कहैं, वई हग नीर है अधीर सुधि गई है। “राधिकावल्लभदास" प्रगट प्रकास भास, भयो दुख रास, सुनि सो बुलाय लई है ।। “साँच कहि दीजै नहीं अभी जीव लीजै," डरि, सवैकहि दियौ, सुख लियौ, संज्ञा भई है । काढ़ि तरवार तिया मारिखे कल्यान गयौ, दयौ परवोध "हमे करी दया नई है" ॥ ५२७॥ (१०३) वात्तिक तिलक । श्रोताजन अति दुखी होकर आपस में कहने लगे कि जो भूमि फट जाती हम सब समा जाते तो भला था इस दुष्टा के वचन न सुनते । सबके नेत्रों से जल बहने लगा, अधीरता से देह सुधि भूल गई। तब एक संत राधिकावल्लभदासजी जो बड़े बुद्धिमान थे, वे उसको समीप में बुलाके कहने लगे कि “सच सच बता तू क्यों ऐसे वचन बोलती है ? झूठ कहेगी तो अभी तेरे प्राण ले लेवेंगे।" तब डरके उसने यथार्थ सब वात कह दी। सच्ची बात खुल गई। सुनके सब श्रोताओं को सुख और संज्ञा (सुधि) हुई। कल्यानसिंहजी अपनी स्त्री की दुष्टता सुनते ही खड्ग निकाल उसका माथा काटने को दौड़े, महजी ने बहुत प्रकार से प्रबोध कर निवारण किया और कहने लगे कि “उसने मुझ पर नवीन दया की है। (६६६) टीका । कवित्त । ( १७७ ) रहैं काहू देस मैं महंत, भाये कथा माँझ, भागे लै बैठाये देखें सबै साधु भीजे हैं। “मेरे अश्रुपात क्यों न होत ?” सोच सोत परे । करेलै उपाय दै लगाय मिर्च खीजे हैं। संत एक जानिकै जताय दई भट्टजू को, गए उठि सब जब, मिलि अति रीझे हैं । “ऐसी चाह