पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८११

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MANAINAugi- H -4400 M AJHAprintriend- ७९२ श्रीभक्तमाल सटीक । है।" आपने कहा “लेकर पधारो, तुम्हारी तो यही जीविका है, और मुझे तो प्रभात होते ही इससे दसगुनी लोग दे जायँगे।” चोर चरणों में पड़कर विनय करने लगा कि "मैं अब धन कैसे ले जाऊँ ? मेरी इच्छा होती है कि आपके ऊपर अपना प्राण न्यवछावर कर दूं।" भाप समझाने लगे कि तुमने प्राणों का भय छोड़ उपाय और परिश्रम किया है, ले जाओ।" निदान चोर चोरी छोड़, आपका शिष्य हो गया। भक्ति में तत्पर हो संसार से मुक्त हुआ। (६६८) टीका । कवित्त । (१७५) प्रभु की दहल निज करनि करत आप, भक्ति को प्रताप जाने भागवत गाई है । देत इते चौका, कोऊ शिष्य बहु भेट ल्यायो, दूरही ते देखि, दास आयौ सो जनाई है ॥ “धोवो हाथ बैठौ आप," सुनिक रिसाय उठे, सेवा ही में चाय वाकों खीझि समझाई है। हिये हित रासि जग प्रासकों विनास कियो, पियो प्रेमरस, ताकी बात लै दिखाई है ॥ ५३० ॥ (88) वात्तिक तिलक । प्रभु की परिचा टहल नित्य आप अपने ही हाथों से किया करते थे, क्योंकि भक्ति की रीति और प्रताप जिस प्रकार भागवत श्रादि ग्रंथों में कहा गया है सो श्राप भले प्रकार जानते थे। एक दिन आप पूजा के लिये चौका लगा रहे थे, उसी समय एक शिष्य बहुतसा धन भेट लिये प्राया, आपका दास उसको देख, प्राकर, कहने लगा कि "अमुक सेवक चला आता है, आप हाथ धोकर बैठ जाइये चौका मैं लगा दूँगा ॥ आपने सुनकर खोजकर उस सेवक को शिक्षा दी कि "मैं अपना भजन कैंकर्य छोड़ किस लिये बैठ जाऊँ ? ऐसा कौन सा बड़ा कार्य है ? सेवक आता है तो मेरी टहल देख और भी प्रभु की सेवा में तत्पर होगा।" इत्यादिक, श्रीगदाधरभट्टजी के अलौकिक चरित्र हैं । आपके हृदय में सबका हित ही बसता था। जगत् की आसा को सर्वथा