पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१७

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mmen.......... - - - श्रीभक्तमाल सटीक । दिया सोई चिह्न लेकर चले । बाहर आ गये और शंख चक्रादि चिह्न ले कर, श्रीअल्हूजी को यहाँ न पाकर घर को चले । प्रथम अपमान की वार्ती स्वप्ने सरीखे भूल, उससे अति प्रीतियुक्त हुये ।। । अपने गृह में पहुँचे । श्रीअल्हूजी ने सुना कि कोल्ह जो समुद्र में डूब गए थे, सो दिव्य द्वारिका में श्रीकृष्ण दर्शन सङ्ग पारे, चले आते हैं, तब आगे आये नेत्रों में जल भर भूमि पर साष्टांग प्रणाम किया, श्री- कोल्हजी ने हृदय में लगाकर, वही प्रसाद दे, श्रीकृष्णचन्द्र का कहा हुया वृत्तांत सुनाया । सुनते ही उसी क्षण घर को त्याग वन में ना, दोनों भाई सप्रेम भजन कर अन्त में प्रभु को प्राप्त हुये ॥ (१७५) श्रीनारायणदासजी। ( ६७६ ) टीका । कवित्त । ( १६७ ) अल्हू ही के वंश में प्रसंस याहि जानिलेव, बड़ी और भाई छोटै श्रीनारायणदास है । दीरघ कमाऊ, लघु उपज्यों उड़ाऊ, भाभी दियो सीरौ भोजन, लै भयो दुख रास है ।। "देवो मोकों तातो करि,” बोली वह क्रोध भरि यहूँ जा हुँकारौ भर, "बाब ?" कियो हाँस है। गयो गृह त्यागि हरि पागि कखौ वैसे ही जू, भक्ति बस स्याम कयौ प्रगट प्रकाश है ॥५३७॥ (६२) वात्तिक तिलक । चारन श्रीनारायणदासजी भी अल्हजी ही के वंश में प्रशंसनीय हुये। इनके एक बड़ा भाई धन कमानेवाला था। श्राप छोटे थे धन उड़ाते थे कमाते नहीं ॥ एक दिन भौजाई ने बासी भोजन खाने को दिया, आपको बड़ा दुख हुधा । तब बोले “मुझे अभी भोजन बनाकर दो" तब भाभी क्रोध कर हुंकार भर के, बोली मार कर कहने लगी, "क्या तू भगवद्भक्त बाबा अल्हजी है कि तेरी आज्ञानुसार सेवा करूँ?" ऐसा बचन सुन नारायण दासजी गृह को तज प्रेम में पग, अपने बाबा के समान श्रीहरिभक्ति की। प्रभु ने कृपा कर प्रगट दर्शन दे कृतकृत्य किया।