पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१९

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- - -- - - -- page + + + ++ + ++ + श्रीभक्तमाल सटीक । दिन तीन प्रभु मंदिर न दीठि परै ! पाछे, हरि देखि, भयो सुख को समाज है।। ५३८।। (६१). . . वात्तिक तिलक । मारवाड़ देश बीकानेर नगर के राजा श्रीपृथीराजजी, श्रीकल्यान- सिंहजी के पुत्र, बड़े भक्तराज और कविराज थे। प्रभु की सेवा में अनुराग और विषय से विराग ऐसा था कि रानी को पहिचाना नहीं; मानों भाज ही देखी है। आप अपने गृह से विदेश गये थे वहाँ जो बीकानेर के मंदिर में प्रभु विराजे थे उन्हीं की मानसी सेवा किया करते थे। एक दिन मन से उस मंदिर में प्रवेश किया, श्रीपभु के मंगल विग्रह के दर्शन स्पर्श नहीं हुए। तब कैसे मानसी सेवा कार्य हो सके ? इसी प्रकार तीन दिन बीत गये मंदिर में प्रभु के दर्शन न हुए, पीछे चौथे दिन से मानसी में प्रभु दिखाने लगे । तब मानसी सेवा में बड़ा सुख हुआ। (६७९) टीका ! कवित्त । (१६४) लिखिकै पठायो देस, सुन्दर संदेस यह “मंदिर न देखे हरि बीते दिन तीन है" लिख्यौ आयो साँच बाँचि मतिही प्रसन्न भए लगे राज बैठे प्रभु बाहर प्रवीन है ।। सुनौ एक और यो प्रतिज्ञाकरी हिये धरी "मथुरा सरीर त्याग करें" रस लीन है। पृथीपति जानि के मुंहीम दई काबुल की, चल अधिकाई नहीं काल के अधीन है ॥ ५३६॥ (६०) वात्तिक तिलक । राजा ने पत्र में सुन्दर संदेश लिख देश को साँडिनी दौड़ाई कि "मैंने तीन दिन बीते श्रीहरिजीको मंदिर में नहीं देखा ! क्या हेतु है!" यहाँ से लिख गया कि “मंदिर को सुधारने के लिये काम लगा था, इससे तीन दिन प्रभु बाहर विराजे थे” यह सत्य बात जान, रानाजी अति प्रसन्न हुए। एक बात और सुनिए भक्ति रसलीन राजा ने यह प्रतिज्ञा की १ "मुहीम =pir==कठिन चढ़ाई । २ "काबुल'=-iदेशविशेष ।।