पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८३५

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04adamendmarad 4004 - - ११६ श्रीभक्तमाल सटीक । था ही नहीं, कह दिया कि “आप अपने मनमाने राजसुख कीजिये, मैं अपने सुखदायक में लगी हूँ॥" (७००) टीका । कवित्त । (१४३) राजा "मानसिंह" "माधोसिंह" उभै भाई चढ़े, नावपरि कहूँ, तहाँ बुड़िवे को भई है। बोल्यो बड़ी भ्राता "अब कीजिये जतन कौन ? भौन तिया भक्त" कहि छोटे सुधि दई है । नैकु ध्यान कियो, तब आनिकै किनारौ लियो, हियौ हुलसायो, जेठ चाह नई लई है। कस्यौ प्राय दरसन विनै करि गयो भूप, अतिही अनूप कथा, हिये व्याधि गई है ।।५५८॥ (७१) वात्तिक तिलक । एक समय राजा मानसिंह और छोटे भाई माधवसिंह, दोनों, किसी महानदी के पार होने को नाव पर चढ़े थे, दैवयोग नाव डूबने लगी। मानसिंहजी अतिशय घबरा के भाई से बोले कि “अब क्या यत्न करना चाहिये "माधवसिंह ने कहा, "मेरे गृह की बी परम भक्त है," बस दोनों जनोंने रानीजी का ध्यान किया। उसी क्षण रामकृपा से नौका तीर पर लग गई। दोनों भाई अपना नवीन जन्म मान अति आनन्दित हुये, और मानसिंहजी को रानीजी के दर्शन की नवीन चाह उत्पन्न हुई। सो अाकर दर्शन विनय किया, तब अपने घर गये। इस प्रकार महा भक्ता रानी श्रीरत्नावती जी की अतिशय अनूप कथा मेरे हृदय में व्याप्त थी सो सुना दी। (१७९) श्रीजगन्नाथपारीष। (७०१) छप्पय । (१४२) ।

  • पारीष प्रसिद्ध कुल काँथड्या, जगन्नाथ सीवाँ

धरम ॥ (श्री) रामानुज की रीति प्रीति पन हिरदै घाखो । संस्कार सम तत्त्व हंस ज्यौं बुद्धि विचाखौ ॥ सदाचार, मुनि वृत्ति, इंदिरा पधति उजागर । रामदास

  • "किनारौं"=ols=तीर, तट, छोर, पॉजर ।।