पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८३४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । ८१५ फिर व्याघ्ररूप प्रभु उस घर से निकले, मानो श्रीमह्लादपतिजी खंभा को फाड़कर प्रगट हुए। जो दुष्ट पिंजड़ा लेकर छोड़ने आये थे उन सबको उसी क्षण हिरण्यकशिपु के समान मार डाला। श्रीनृसिंह भगवान की जय ॥ __(६९९) टीका । कवित्त । (१४४) । भूप को खबरि भई, रानीजू की सुधि लई, सुनी नीकी भाँति, आप नम्र द्वैके पाये हैं। भूमि पर साष्टांग करी, कैके यो मति हरी, भरी दया प्राय वाके वचन सुनाये हैं ॥ “करत प्रनाम राजा,"बोली "मजू लालजू कौं,” "नैकु फिरि देखों" "एक ओर ए लगाए हैं। बोल्यो नृप "राज धन सवही तिहारो धारों" पति पैन लोभ कही "करी सुख भाये हैं ॥ ५५७ ॥ (७२) वात्तिक तिलक । जो व्याघ्र को छोड़ने पाये थे वे सब मारे गये और लोग भाग गए, नाके माधवसिंह से उन्होंने कहा कि “बाध लोगों को मार के चला गया।" पूछा कि "रानी की क्या दशा हुई ?” लोगों ने कहा कि “वे शोधानन्द से भजन कर रही हैं, उन्होंने बाघ की पूजा की तब कूद के बाहर था उसने लोगों को मारा ॥" यह प्रभाव सुन राजा ने, अति नम्र होकर श्रीरत्नावतीजी के पास था, भूमि पर पड़के, कई वार साष्टांग प्रणाम किये क्योंकि परचो पाकर मति हर गई। __ राजा को प्रणाम करते देख उस दासी ने, दया से पूर्ण हो, रानी को वचन सुनाया कि "राजाजी प्रणाम करते हैं, आप बोली कि “श्रीनन्द- लालजी को प्रणाम करते हैं,” उसने विनय किया “मला थोड़ी इधर दृष्टि तो कीजिये” रानी ने उत्तर दिया कि “नेत्र एक ओर लगे हुए हैं, अब दूसरी दिशि नहीं हो सकते ॥" तव माधवसिंहजी ने विनय किया कि “राज और धन सब तुम्हारा है, जो मन में आवै सो करो" रानीजी को तो पति पर लोभ ॐ सब प्रतियो में ऐसा हो पाठ पाया गया ॥