पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८४५

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HRIM + श्रीभक्तमाल सटीक । दो० "तृणतें नीचौ आपको, जानि वसे "चन" माहि । मोह छाँड़ि ऐसे रहे, मनो चिन्हारिहु नाहिं ॥" (७१२) टीका । कवित्त । (१३१) पार्यो गुरु गेह यों सनेहसों लै सेवा करें, धरै साँचौ भाव हिये प्रति मति भीजिये । टहल लगाय दई नई रूपवती तिया, दियो वासों कहि "स्वामी कह सोई कीजियें ॥ देख्यो उरझाव अंग संग को लखाव भयौ दयो घर धन वधू "कृपाकर लीजियों"। धाम पधाय, सुख पायक, प्रनाम करी, धरी ब्रजभूमि उर बसे रस पीजियै ॥ ५६४ ॥(६५) वात्तिक तिलक । आपके श्रीगुरुजी घर में आये, अतिसच्चे स्नेह भाव से मति को भिगो. कर सेवा करने लगे, और नवीन अवस्थावाली अति रूपवती अपनी धर्मपत्नी को गुरुजी के टहल में लगाकर कह दिया कि “जो स्वामीजी की आज्ञा हो सोई करना।" सब काल इकट्ठे रहने से अंग संग का उरभाव हो जाना जान लिया । तब घर और धन तथा अपनी स्त्री श्रीगुरु महाराज को सब देकर विनय किया कि “ये सब कृपा करके लीजिये।" अति भानन्दित हो उन्हें गृह में पधरा, साष्टांग प्रणाम कर, आज्ञा माँग, आकर, ब्रजभूमि में वस, श्रीभगवत प्रेमरस को पान किया करते ॥ दो." गजधन, गोधन, भूमिधन, हेम रत्न-धन-खान । जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान ॥" (७१३) टीका । कवित्त । (१३०) श्रीगोविंदचंद को भोर ही दरस करि, केसव सिंगार, राज- भोग नंदग्राम मैं। गोवर्धन, राधाकुंड हैकै, प्रा वृन्दावन, मन में इलास नित करै चारि जाम मैं ॥ रहे पुनि पावन पें भूखे दिन तीन बीते, आये दूध लै प्रवीन “एऊ रंगे स्याम मैं । माग्यौ नैकु पानी ल्यावौ,” फेर वह पानी कहाँ ? दुख मति सानी, निसि कही "कियो काम मैं ॥ ५६५॥ (६४) वात्तिक तिलक श्राप वृन्दावन में नित्य आनन्द हुलास से प्रदक्षिणापूर्वक इस