पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८४४

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Magar - --+-+ -+ Mu m + + भक्तिसुधास्वाद तिलक । ८२५ लोग देखकर विश्वास के प्रभाव से हँसते थे, और विदुरजी श्रीकृपालु हरि के चरणों में प्रीति विश्वास पूर्वक गुन गाते थे, इससे दो सहस्र मन की राशि लग गई। देखकर सबने अनुराग से "जय जय" कार किया। (कुछ अाश्चर्य नहीं)॥ चौपाई। “सीतापति सेवक सेवकाई । कामधेनु शत सरिस सोहाई ॥" कैसे सेवक - दो० "राम अमल माते फिरें, पीवे प्रेम निशंक । आठ गांठ कोपीन में, कहा इन्द्र सो रंक ॥" (१८३) स्वामी श्रीचतुरोनगन (नागाचतुरदासजी) (७११) छप्पय । (१३२) . श्रीस्वामी चतुरोनगन, मगन रैन दिन भजत हित ॥ सदा जुक्त अनुरक्त भक्त मंडल को पोखत । पुर मथुरा ब्रजभूमि रमत, सबहीं को तोखत ॥ परम धरम दृढ़ करन देव श्रीगुरु आराध्यौ।मधुर बैन सुठि, ठौर ठौर हरिजन सुख साध्यौ ॥संत महंत अनंत जन, जस बिस्तारत

जासु नित। श्रीस्वामी चतुरोनगन, मगन रैन दिन भजन

। हित ॥ १४८॥(६६) । वात्तिक तिलक। । नागा (नंग) नग्नरूप श्रीस्वामी "चतुरोजी” दिन रात भजन में ९ मग्न रहते थे। सदा भगवत् अनुराग युक्त भक्त मंडल को भी अनुराग से पुष्ट , करते, मथुरापुरी तथा श्रीब्रजभूमि में रमते हुये सब को सुख संतोष देते थे, परम धर्म दृढ़ करने के लिये श्रीगुरुदेव की अति अलौकिक सेवा की, आपने अति मधुर वचन सुनाके ठौर २ में हरिभक्तों को सुख दिया। सव संत महंत और समस्त सजन लोग श्रीनागाजी का यश नित्य ही विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं। "चतुरदास" वृन्दाविपिन वास कियौ भलि भाँति ॥"