पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक । उनको विनय सुनाया कि “इतना ही धन है, इसी में चाहे संतों को भोजन कराइये, चाहे रासलीला कराइये, चाहे आप सब ब्राह्मणलोग भोजन कीजिये । जो आपके मन में रुचै और सुखहोय सोई कीजिये ॥" वे उस द्रव्य से सीधा मँगाकर कोठार में रख, और रोकड़ रुपये थेली में भर, प्रथम ब्राह्मणों ही को बुलाके सीधा और दक्षिणा देने जगे। मन में यह ठीक किया कि “शीघ्र ही सब चुक जाय तो इसका दुर्यश होय ।" परन्तु प्रभुकृपा से जिस वस्तु में से जितना निकालते थे उसका सौगुना वह वस्तु बढ़ती जाती थी, एक एक ठिकाने में बीस बीस गुना दिये, भेजे, तो भी सब पदार्थ बनाही रहा । उसी में वैष्णवों का भी भोजन, और रासलीला भी हुई, तथापि पदार्थ बना ही रहा । भक्त-मनोरथपूरक कृपालु की जय ॥ छप्पय। “सुनि सठ दिन मन हर्ष, लगे बाँटन धन रासा। इक छटाँक जहँ देन; देहि तेहिं हरषि पचासा॥ यहि विधि धन पट असन, कुटिल प्रति भूरि लुटायौ । नेकुन घटा सीज, सबन मन विस्मय पायो। पुनि परेउ चरण “अवगुण छमड, प्रभुता बढ़ी अपार जव । लज्जा राखी हरि भगत की, भए शिष्य बहु प्राय तब ॥ विदित हो कि इस (भगवान ) नाम के भी भक्त कई हुए हैं ॥ (१८८)श्रीजसवन्तजी। (७३२) छप्पय । (१११) “जसवंत" भक्ति “जयमाल" की, रूड़ाराखी राठवड़॥ भक्तनि सो अति भाव निरंतर, अंतर नाहीं । कर जोरे इक पाय, मुदित मन आज्ञा माहीं ॥ श्रीवृन्दाबनबास, कुंज क्रीड़ा रुचि भावै । राधावल्लभ लाल नित्तप्रति ताहि लड़ावै ॥ परम धरम नवधा प्रधान, सदन साँच