पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८६१

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८४२ . . . . .- -- . .-. - .- . - . . . न . . . श्रीभक्तमाल सटीक । निधि प्रेम जड़ । “जसवंत" भक्ति “जयमाल" की, रूड़ा राखी राठवड़ ॥१५५ ॥ (५६) वात्तिक तिलक । राठवड़ अर्थात् “राहर जाति" के क्षत्री "श्रीजसवन्तसिंहजी," ने अपने बड़े भाई "श्रीजयमालसिंहजी" की भक्ति की रूड़ा रक्सी अर्थात् उनके पीछे उस भक्ति को ग्रहण कर सुन्दर रक्षा की, वह हीन न होने पाई। भगवद्भक्तों से बल छोड़ निरंतर प्रेमभाव करते, आनन्द से हाथ जोड़े, आज्ञा में एक चरण से खड़े रहते थे, और श्रीवृन्दावनवास कुंजक्रीड़ा दर्शन में प्रति प्रीति थी, श्रीराधा- वल्लभलाल को नित्यप्रति लाड़ लड़ाते थे, प्रेम किया करते, और सब धर्मों का सार नवधा भक्ति, तथा प्रधान प्रेमाभक्तिरूपी बड़ी भारी निधि हृदयरूपी गृह में सदा संचित करते, परम प्रेम में मग्न हो जड़ सरीखे हो जाते थे। आप श्रीहरिदासजी के शिष्य थे। (१८६) श्रीहरिदासजी। (७३३) छप्पय । (११०) "हरीदास" भक्तनि हित, धनि जननी एकै जन्यौ॥ अमित महागुन गोप्य सार वित सोई जानै । देखत को तुलाधार दूर आसै उनमानै ॥ देय दमामौ * पेज बिदित वृन्दाबन पायौ । राधाबल्लभ भजन प्रगट पर- ताप दिखायौ ॥ परम धरम साधन सुदृद्ध, कलियुग कामधेनु में गन्यौ । हरीदास" भक्तनि हित, धनि जननी एकै जन्यौ ॥ १५६ ॥ (५८) वात्तिक तिलक । श्रीहरिदासजी की माता धन्य हैं कि जिन्होंने भगवद्भक्तों का हित

  • "दमामों" नगारा, डका।

+"श्रीहरिदासजी" नाम के कई महात्मा श्री भक्तमालजी मे वर्णित है।