पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७१

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AME nd R IME-- - - +In+Harendranimuku ९५२ श्रीभक्तमाल सटीक। करने के योग्य नहीं, इससे इसे त्याग देना चाहिये । हे मन ! तू सोवै मत, मोहनींद से जागके सच्ची प्रीति एक श्रीश्याम की कर, जिससे हृदय की मलीनता मिट जाय, जो श्रीब्रजराजनन्दसुत को चाहे तो लाज मत कर, जो घर की सुधि करेगा तो बड़ा ही अकाज होगा।" ___ मन को ऐसे समझाकर जिस दिन के प्रभात में गौना होना था, उसी रात्रि में अनुराग रंग से पगी, मति को प्रेम में भिगाकर, प्रकले एक प्रभु ही का ध्यान साथ ले, भाप चल दी। (७४६) टीका । कवित्त । (९७) आधी निसि, निकसी यों वसी हिये मूरति सो, प्रति सनेह तन सुधि बिसराई है। भोर भये सोर पखौ, पलौ पितु मातु सोच, कखौ ले जतन ठौर ठौर हँदि आई है।चारों ओर दौरे नर, आये दिग दुरि जानि, ऊँट के करंक मध्य देह जा दुराई है । जग दुरगंध कोऊ ऐसी बुरी लागी, जामें वह दुरगंधसों सुगंध सी सुहाई है ॥५८७॥ (४३) वार्तिक तिलक । आधी रात को निकलकर चल दी। वही साँवली मूरति हृदय में बसी, स्नेह को पूर्ण करती और उसी ने शरीर की सुधि भुला दी । प्रभात होने पर बड़ा कुलाहल पड़ा, माता पिता अत्यन्त सोचकर यत्न से ठौर २ हूँढ पाये, और बहुत से लोगों को चारों ओर ढूँढ़ने को दौड़ाए॥ श्रीकरमतीजी ने जाना कि हूँढ़नेवाले लोग समीप आ गये, तब, एक मरे ऊँट के करक को सियारों ने खोल डाला था उसी में घुस कर छिप गई । देखिये, आपको जगत् के पापों की दुगंधि इतनी दुःसह लगी कि आपने उसके सामने उस करंक की दुगंधि को सुगंध के सम मान लिया। (७४७) टीका । कवित्त । (९६) बीते दिन तीन वा करंक ही मै संक नहीं, वक प्रीति रीति यह केस करि गाइये । पायौ कोक संग, ताही संग गंग तीर आई, तहाँ सा अन्हाई दे भूषन बन आइयै ।। ह्दत परसराम पिता मधुपुरी पाय, पते लै बताये जाय मथुरा मिलाइये । सघन विपिन ब्रह्मकुंड पर, वर एक, चढ़ि करि, देखी, भूमि अँसुवा भिंजाइये ॥ ५८८॥ (४२)