पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७०

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५१ भक्तिसुधास्वाद तिलक । (७४४ ) टीका । कवित्त । ( ९९ ) शेषावति नृपके पुरोहित की बेटी जानौ, बास है खडेला करमैती जो बखानिये । बस्यो उर श्याम अभिराम कोटि काम हूँ ते, भूले धाम काम सेवा मानसी पिछानिये ॥ बीत जात जाम तन बाम अनुकूल भयो, कलि फलि अंग गति मति छवि सानिये । आयौ पति गोनों लैन, भयो पितु मातु हिये, लिये चित चाव पट अाभरन शानिये ॥५८५।। (४५) बार्तिक तिवछ। शेषावति नगर के राजा के पुरोहित खडेला के रहनेवाले श्रीपरशु- रामजी की कन्या श्रीकरमैतीजी को जानिये ॥ कोगनि काम से अधिक अभिराम श्यामसुन्दर ने आपके हृदय में निवास किया, इससे गृह के कामों को भूल, केवल मानसी पूजा करने लगी। सेवा करते करते पहर के पहर बीत जाते थे, यद्यपि

देह तो कुटिल श्री जाति का था, तथापि प्रभुकृपा से अति अनुकूल

हो गया। अंग अंग से प्रफुल्लित हो आपने अपनी मति की गति को श्रीकृष्णचवि में मिला दिया। जिस समय पति गवना लेने आया उस समय माता पिता को बहुत सन्नता हुई, बड़े प्रानन्द से वस्त्र भूषण आदि सब साज प्रस्तुत किये। (७४५) टीका । कवित्त । (९८) पसो सोच भारी कहा कीजिये विचारी, “हाड़ चाम सों सँवारी ह रति के न काम की । तातें देवौ त्यागि मन ! सोवै जनि, जाग घरे, मिटै उर दाग एक साँची प्रीति स्याम की ॥ लाज कौन काज ? नौ चाहै बजराजसुत, बड़ौई अकाज, जौप करें सुधि धाम की।" जानी भोर गोनो होत, सानी अनुराग रंग, संग एक वही, चली भीजी मति वाम की ॥५८६ ॥ (४४) वात्तिक तिलक । . श्रीकरमैतीजी को बड़ा भारी सोच पड़ा। विचार करने लगी कि "अब क्या करूँ ? इस पुरुष की देह हाड़ मांस वाम से बनाई, प्रीति "दाग" ==चिह्न कलंकित चिह्न ॥