पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७३

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श्रीभक्तमाल सटीक । सबैया। "राम है मातु, पिता, सुत, बन्धु, ओसंगि, सखा, गुरु, स्वामी, सनेही। रामकी सी हैं, भरोसो है राम को, रामरंगी रुचि, राची न केही ॥ जीवत राम, मुए पुनि राम, सदा रघुनाथहि की गति जेही । सोई जिये जग मैं तुलसी, नतु डोलत और मुए धरि देही ।। १॥" (७४९) टीका । कवित्त । (९४) ___ कही तुम कटी नाक, कटै जो पे होय कहूँ, नाक एक भक्ति, नाक लोक में न पाइये । बरस पचास लगि विषे ही में वास कियो, तऊन उदासभये चचेकों चबाइये ॥ देखे सब भोग मैं न देखे, एक देखे श्याम तातें तजि काम तन सेवा में लगाइयै ॥ सततें ज्यौं पात होत, ऐसे तम जातभयौ, दयो लै सरूप प्रभु, गयो, हिये आइये ॥ ५६० ॥(४०) ___ वात्तिक तिलक । और, "जो तुमने कहा कि मेरी नाक कट गई सो विना विचार का वचन है क्योंकि कटै तो तव जो कहीं नाक हो भी तो सही ? नाक तो एक भगवद्भक्ति ही है, सो भक्ति के बिना इस लोक में और स्वर्गलोक में जितने जीव हैं वे सब नकटे ही हैं। विचार करो कि पचास वर्ष तक तुमने विषयभोग किया, तथापि उससे उदास न हुये, चबाए हुए ही को चबाते हो, अर्थात् जैसे पशु एकवर घास को चबाके लील जाता है उसी को फिर पागुर करके चबाता है, ऐसे ही संसारी लोग कार्य एक बेर कर फिर उसी को अनुमोदन चिन्तवन करते हैं । देखो, मैंने सब भोगों की ओर देखते भी नहीं देखा, एक श्याम ही की ओर देखा । इससे तुम भी सब काम भोग को तज तन मन को हरिभजन मैं लगाओ॥" ___ “बहु विधि वचन कठोर कहि, सबै निरादर करौ किनि । बृन्दा- वन को बाँढ़िये, यह लामो मन भूलि जिनि ॥" ऐसा श्रीकरमैतीजी का उपदेश सुन, जैसे प्रभात होते. रात्रि चली जाती है ऐसे ही परशु रामजी का तम अज्ञान चला गया, श्रीकरमैतीजी ने एक शालग्राम- स्वरूप दिया, सो लेकर घर को चले गये, श्रीकरमैतीजी के वचन हृदय में धारण किये रहे ॥