पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७४

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । (७५०) टीका । कवित्त । (९३) आयें निसि घर, हरिसेवा पधराय, चाय मन को लगाय, वही टहल सुहाई है। कहूँ जात श्रावत न भावत मिलापं कहूँ, आप नृप पूछे दिज कहाँ ? सुधि आई है ॥ बोल्यो कोऊ जन धाम स्याम संग पागे, सुनि अति अनुरागे, बेगि खबर मँगाई है। कहो तुम जाय "ईश इहॉई असीस करौं,” कही भूप आयौ, हिये चाह उपजाई है ॥ ५६१ ।। (३६) वात्तिक तिलक । परशुरामजी रात्रि में अपने घर आये, और श्रीहरिसेवास्वरूप पधरा के उत्साह से मन को लगाकर पूजा टहल भजन करने लगे, किसी का मिलाप अच्छा नहीं लगता, इससे कहीं भी नहीं जाते आते थे। एक दिन राजा ने स्मृति कर लोगों से पूछा कि “बहुत दिन हुये ब्राह्मण परशुरामजी यहाँ नहीं आये कहाँ हैं ?"किसी ने कहा कि "श्रीवृन्दावन से श्रा, अब अपने घर ही में प्रेम से पगे भगवद्धजन करते हैं।" सुनके राजा को अनुराग हुआ, शीघ्र ही मनुष्य को भेजकर कह- वाया कि हम दर्शन किया चाहते हैं।" श्रीपरशुरामजी ने उत्तर कहला भेजा कि "मैं राजाजी को यहाँ ही से आशीर्वाद देता हूँ, मनुष्य तन पाकर जिस राजा की सेवा करनी चाहिये उसी की कर रहा हूँ। उसने श्राकर कहा । सुनकर राजा को दर्शनों की प्रीति चाह उत्पन्न हुई। दो०"जो मन से भासा गई, योगी गुरु जगदास । नृप गुरु निश्चय जानिये, जब मन में नृप श्रास ॥१॥ चौपाई। "जिनके नयन सन्त नहिं देखा। लोचन मोरपंख के लेखा ॥ २॥" दो० "सन्त दरस को जाइये, ताज आलस अभिमान । ज्यों ज्यों पग भागे पड़े, उतने यज्ञ समान ॥ ३॥" (७५१) टीका । कवित्त । (९२) देखी नृप प्रीति रीति, पूछी, सब बात कही, नैन अश्रुपात, "वह रंगी श्याम रंग मैं।" वरजत भायौ भूप “जायकेलिवाय