पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९३

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८७४ श्रीभक्तमाल सटी। उस शाखा से लाखों कोस पर है, इसी प्रकार चन्द्रशाखा न्याय से श्रीकान्हरदासजी कहनेमात्र ही को तो संसार में रहे परन्तु वस्तुतः पृथक् थे। और सर्व भूतों में समदृष्टि से भगवद् प ब्याप्त देखते, शुभगुणों से भरे, अतिगंभीर, समुद्र के समान थे, अपने मुखसे भगवद्भक्तों की भलाई बड़ाई सदा कहते, कुवचन कभी न बोले । इस प्रकार आपने अपने, हृदय में हरिरूप का लाभ उठाया ॥ (२०३।२०४) श्रीकेशवलटेरा श्रीपरशुरामजी। (७७१) छप्पय । (७२) लट्यौ "लटेरा” आनविधि, परमधरम अतिपीनतन॥ कहनी रहनी एक, एक प्रभु पद अनुरागी।जस वितान जगतन्यौ संत संमत बड़भागी॥ तैसोई पूत सपूतनूत फल जैसोई परसा । हरिहरिदासनि टहल, कबित रचना पुनि सरसा॥(श्री) सुरसुरानन्द संप्रदाय दृढ़, "केसव" अधिक उदार मन।लट्यौ "लटेरा" आनबिधि परमधरम अति पीनतन ॥१७२॥ (४२) वात्तिक तिलक । (१) श्रीकेशवलटेराजी जगत् की विधि से अति दुर्वल थे। दो० "नारायण तू भजन कर, काह करेंगे कूर। ___ अस्तुति निन्दा जगत् की, दोउन के शिर धूर"। और परमधर्म श्रीभगवद्भक्ति से परम पुष्ट थे॥ दो० "स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिनके सब तुम्ह तात। तिनके मनमन्दिर बसहु, सीयसहित दोउ भ्रात"॥ आपकी कहनी और रहनी एक समान थी, तथा श्रीसीतारामचरणा नुराग में अद्वितीय थे। आपके संतसंमत सुयश का वितान लोक में तन गया था। (२) जैसे बड़भागी श्रीकेशवजी थे वैसेही आपके सुकृत वृक्ष के