पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९५

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८७६ ८७६.... श्रीभक्तमाल सटीक। (७७३) टीका । कवित्त । (७०). घर घर जाय कहै यह दान दीजै मोकों कृष्णसेवा कीजै नाम लीजे चित लायक । देखे भेषधारी दस बीस कहूँ अनाचारी, दये प्रभु सेव- निको रीति दी सिखायकै । करुणानिधान कोक सुने नहीं कान कहूँ, बैल के लगायौ साँटौ लोटे दया श्रायके । उपट्यो प्रगट तनमनकी सचाई अहो भए तदाकार कहीं कैसे समझाय के ॥६०१ ॥ (२६) वात्तिक तिलक । श्राप सबों के घर में जा जाके यही कहते थे कि "श्रीकृष्णसेवा करो और चित्त लगा के उनका नाम लिया करो, मुझे यही दान दो।" जहाँ कहीं दसवीस वैष्णव वेषधारी अनाचारी देखते थे, उनको अपने पास से प्रभुकी मूर्तियाँ देकर सेवा पूजा भजन की रीति सिखला देते थे। करुणानिधान तो आप एसे थे कि वैसा कहीं कोई कानों से सुनने में भी नहीं पाता, एक समय मार्ग में कोई बनजारा बैल लिये जाता था, आप भी पास पास चले जा रहे थे, उसने अपने बैल को एक साँटी मारी, यह देखते ही श्रीकेवलरामजी दया से भूमि पर गिरपड़े, लोगों ने उठाकर देखा तो आपकी पीठ में वही साँटी ज्यों की त्यों प्रत्यक्ष उपटी है। देखिये, आपके मनकी कृपाकी सचाई कि तदाकार होगये । यह आश्चर्य रीति किसमकार कहने और समझाने में आसक्ती है ? (२०६)श्रीआसकरनजी। (७७४) छप्पय । (६९) (श्री) मोहन मिश्रित पदकमल, "आसकरन" जस विस्तस्यौ ॥ धर्मसीलगुनसीव महाभागात राजरिषि । पृथीराज कुलदीपभीम सुत बिदित कील्हसिषि ॥ सदा- चार अति चतुर, बिमल वानी, रचना पद । सूर धीर उद्दार बिनै भलपन भक्तनि हद ॥ सीतापति राधासुवर,