पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९६

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८७७ +++Rana + ++ - Argenti-IAr+mandup- manentre- भक्तिसुधास्वाद तिलक। भजन नेम कूरमधयो। (श्री) मोहन मिश्रित पदकमल, "आसकरन" जस बिस्तखौ ॥ १७४॥ (४०) ___ वात्तिक तिलक । श्रीजानकीमोहन और श्रीराधिकामोहन दोनों मोहन मिश्रित चरणकमलों की आसा करनेवाले श्री “आसकरनजी" ने प्रभुका तथा अपना यश विस्तार किया । श्राप, कूर्मवंशी (कछवाइ) श्रीपृथीराजजी के कुल के दीपक, भीमसिंहजी के पुत्र, श्रीस्वामी कोल्हदेवजी के शिष्य, नरवरगढ़ के राजा परम विख्यात हुये। बड़े धर्मशील, शुभ गुणों के सीम, महाभागवत राजर्षि, सूर, धीर, अति उदार, विनययुक्त, सदाचार तत्पर, हरिभक्तों से अनुराग तथा मलप्पन करनेवालों में श्रेष्ठ हुए। विमल बानी से प्रभु सुयशयुतपद, रचना करने में अति चतुर थे। श्रीसीतापति और श्रीराधावर के पूजन भजन का नियम अापने अपने हृदय में दृढ़ धारण किया ॥ (७७५) टीका । कवित्त । (६८) नरवरपुर ताको राजा नखर जानौ मोहन जू धरि हिये सेवा नीके करी है। घरी दस मंदिर में हैं रहै चौकी द्वार, पावत न जान कोऊ ऐसी मति हरी है ॥ पस्यो कोऊ काम प्राय अबहीं लिवाय ल्यावौ कहे पृथीपति लोग कान में न धरी है। आई फौज भारी, सुधि दीजियै हमारी, सुनि वह बात दारी, परी अति खरबरी है ॥६०२॥ (२८) वार्तिक तिलक । श्रीश्रासकरलजी सब नरों में श्रेष्ठ नरवरगढ़ के राजा युगलमोहनजी को हृदय में धारणकर बहुत अच्छी सेवा पूजा इस प्रकार करते थे कि दस घड़ी दिन चढ़े तक मंदिर में रहते थे, और द्वारपर चौकी खड़ी रहती थी कि उतने समय भीतर कोई भी नहीं जाने पाता था। ऐसी मति भजन में एकाग्र थी॥ एक समय संयोगवश नखरगढ़ में बादशाह आया और दोपहर के पहिले ही सुभटों को आज्ञा दी कि “श्रासकरनजी को अभी लिवा लाओं" राजभटों ने, आकर भक्तराज के द्वारपालों से कहा, पर