पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९००

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८८१ + +++ +++ +ernorte r ia raat Pleampier भक्तिसुधास्वाद तिलक । सपूत शिष्य श्रीहरिवंशजी भगवत् पार्षदों के अंश से उदय (प्रगट ) हुये ॥ (२०८) श्रीकल्यानजी। (७७९) छप्पय । (६४) हरिभक्ति, भलाई, गुन गंभीर, बाँटें परी “कल्यान" के ॥ नवकिसोर दृढ़बत अनन्य मारग इक धारा। मधुर बचन मन हरन सुखद जानत संसारा॥पर उपकार बिचार सदा करुना की रासी।मन बच सर्बस रूप भक्तपद रेनु उपासी ॥"धर्मदास"सुत सीलसुठि,मनमान्यौ कृष्णा सुजान के । हरिभक्ति, भलाई, गुन गंभीर, बाँटें परी "कल्यान" के ॥१७६॥ (३८) वात्तिक तिलक । श्रीहरिभक्ति, और सबसे भलाई करनी, तथा सन्तगुणों की गंभीरता "श्रीधर्मदासजी के पुत्र श्रीकल्यान भक्तजी" के बखरे में पड़ी। नवलनन्दकिशोर के दृढ़ प्रेमत्रत में आपकी अनन्य मन की वृत्ति नदी के धारा की नाई एकरस लगी रहती थी । मनहरन मधुर वचनों से सबको सुखद थे यह बात संसार में विदित थी। सदा परोपकार, सारासारविचार, और करुणा की राशि थे। मन वचन तन धन सर्वस्व रूप से हरिभक्तों के चरणों की रेणु की उपासना करते थे। श्राप सुठि, सुशीलयुक्त, श्रीकृष्ण सुजानजी के मन के भावते हुये॥ (२०६) श्रीवीठलदासजी। (७८०) छप्पय । (६३) "बीठलदास" हरिभक्ति के दुहूं हाथ लाइ लिये॥ आदि अंत निर्वाह भक्तपदरज व्रतधारी । रह्यो जगत सों ऐंड, तुच्छ जाने संसारी॥ प्रभुता पति की पधति १ लाड़ लड्डू॥