पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८९९

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५८० man a gemdrugnand-des - + - + - -- श्रीभक्तमाल सटीक। के॥ कथा कीर्तन प्रीति, संतसेवा अनुरागी । खारिया खुरपा रीति ताहि ज्यौं सर्वसु त्यागी ॥ संतोषी, सुठि, सील, असद आलाप न भावै ॥ काल वृथा नहिं जाय निरंतर गोविंद गावै ॥ सिष सपूत श्रीरङ्ग को, उदित पारषद अंस के निहिकिंचन भक्तनि भजै, हरि प्रतीति "हरिबंस" के ॥ १७५ ॥ (३६) वात्तिक तिलक। ' निष्किंचन होके अर्थात् कुछ पदार्थ का संग्रह नहीं रखके, श्रीहरि विषे प्रीति प्रतीतियुक्त होके, "श्रीहरिवंश भक्त” निकिचन (विरक्त) हरि- भक्तों की सेवा करते थे। चौपाई। "तेहिते कहत संत श्रुति टेरे । परम अकिंचन प्रिय हरि करे ॥" श्रीसीतारामकथा श्रवण तथा नाम कीर्तन में प्रति प्रीति, और संत- सेवा में परम अनुराग था। दो० "रसिकन को सतसंग नित, युगल ध्यान दिन रैन । परम विराग सुवेष वर, बोलत सुखद सुबेन ॥ जैसे एक समय एक राजा ने गंगास्नान कर अपने पास के लाखों रुपये के पदार्थ दान कर दिये, और उसी समय एक घसि- यारा जिसके पास केवल खरिया (जाली) और खुपो मात्र था उसने भी दोनों (सर्वस्व) दान कर दिया, स्वर्ग में राजा और घसियारा दोनों में घसियारा राजा से उत्तम लिखा गया क्योंकि घसियारे ने अपना सर्वस्व दान किया, ऐसे ही "हरिवंश" सर्वस्व के त्यागी (दानी) थे॥ • 'अति संतोषी, परम सुशील थे, असत् वार्ता का कहना और -सुनना आपको कभी न अच्छा लगता, थोड़ा भी काल वृथा नहीं जाता, निरन्तर श्रीगोविन्दगुण गान करते थे। श्रीरंगजी के बड़े