पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१५

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६९६ श्रीभक्तमाल सटीक । कृष्णदास कलिजीति,न्यौति नाहर पल दीयौ। अतिथि- धर्म प्रतिपालि,प्रगट जस जग में लीयौ॥ उदासीनता अवधि, कनक कामिनि नहिं रातो रामचरण मकरंद रहत निसि दिन मदमातो॥ गलत गलित अमित गुणा, सदाचार सुठिनीति । दधीचि पाछे दूसरि करी, कृष्ण- दास कलि जीति॥१८५॥(२९) वात्तिक तिलक । जैसे दधीचिऋषिजी ने देवताओं के माँगने से अपना शरीर दै दिया, ऐसे ही दधीचिगोत्र में उत्पन्न श्रीस्वामी कृष्णदास पयहारीजी ने कलिकाल को जीत दधीचि की नाई दूसरी बात की । एक समय आपकी गुफा के सामने वाघ आया तो आपने उसको अतिथि जान नेवताकर भातिथ्यधर्म प्रतिपालपूर्वक अपना पल (मांस) काटके दिया । इस प्रकार के प्रसिद्ध यश को आप जग में प्राप्त हुये ॥ उदासीनता (वैराग्य) की मर्यादा हुये । और इस संसारसागर में जो कनककामिनीरूप दो भँवर सबको डुवा देनेवाले हैं, उन दोनों के रंग से भाप नहीं रंगे । केवल श्रीरामचरणकमल के अनुः रागरूपी मकरंद से भ्रमर की नाई मदमत्त आनन्दित रहते थे। संतों के अमित दिव्य गुणों से गलित अर्थात् परिपक, सदाचार, अति नीतियुक्त, "गलते" गादी में विराजमान हुये ॥ (७९८) टीका । कवित्त । (४५) बैठे हे गुफा में, देखि सिंह द्वार प्राय गयो, लयो यो विचारि “हो अतिथि अाज अायो है"। दई जाँघ काटि डारि, "कीजिये अहार अजू महिमा अपार धर्म कठिन बतायो है ॥ दियौ दरसन प्राय, साँच मैं रह्योन जाय,निपट सचाई,दुख जान्यौ न बिलायो हैं। अन्न जल देवेही कोंझीखत जगत नर, करि कौन सकै जन मन भरमायो है ॥६१४॥ (१६)