पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१४

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८९५ भक्तिसुधास्वाद तिलक । (२१५) श्रीलक्ष्मणभट्टजी। (७९६) छप्पय । (४७) श्रीरामानुज पद्धति प्रताप, “भट्ट लक्षमन" अनु- सयौ ॥ सदाचार मुनित्ति भजन भागौत उजागर। भक्लनि सों अति प्रीति भक्ति दसों को आगर ।। संतोषी मुठि सील हृदै स्वारथ नहिं लेसी॥ परम धर्म प्रतिपाल संत मारग उपदेसी ॥श्रीभागात बखान के, नीर क्षीर बिबरनं कयौ । श्रीरामानुज पद्धति प्रताप, "भट्टलक्षमन" अनुसखौ॥ १८॥(३०) वार्तिक तिलक । अनन्त श्रीरामानुजस्वामीजी की पद्धति (संप्रदाय) के प्रताप से श्रीलक्ष्मणभट्टजी शरणागति भक्तिमार्ग में यथार्थ प्रवृत्त थे। सदाचार तथा मुनिवृत्ति से भजन करनेवाले उत्तम भागवत हुये। और भगवद्भकों से अति प्रीति करते, दशधा (प्रेमा) भक्ति के स्थान ही थे। अति संतोषी, परम सुशील, स्वार्थरहित परमधर्म प्रतिपालक, संतमार्ग के उपदेश करनेवाले थे। श्रीभागवत की कथा कहकर नीररूपी मायिक पदार्थ और क्षीररूपी परमार्थ वस्तु दोनों का विवरण करके पृथकू २ दिखा देते थे। एसे विराग ज्ञान भक्ति के धाम आप थे॥ (२१६) स्वामी श्रीकृष्णदास पयहारीजी। (७९७) कुण्डलिया। (४६) गलतें गलित अमित गुण, सदाचार सुठि नीति। दधीचि पाछे दूसरि करी, कृष्णदास कलि जीति ।। १ "दसवा पराभक्ति (नवधा के परे) । २ "विवरन" विवेक । ३ छप्पय ३८ कवित्त ११९ देखिये॥