पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१७

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८९८ श्रीभक्तमाल सटीक । वात्तिक तिलक। श्रीगदाधरदासजी की भक्ति, आदि से अन्त तक सदा एकरस भले प्रकार से निबह गई। प्रफुल्लित मन से दिन रात श्री “लालविहारी" जी का नाम जपते रहते थे, और प्रभुकी सेवा सहज स्नेह से किया करते । सदा आनन्द के रस से भूलते भगवद्भक्तों से अति प्रीति रखते थे। आपकी रीति सबके मन में भाती थी और अन्तःकरण की आशय अतिशय उदार रही। रसना से हरिकीर्ति गाते, हृदय में श्रीहरि का विश्वास लाते, किसी और की प्राशा आपने स्वप्ने में भी नहीं की। (८००) टीका । कवित्त । (४३) बुरहानपुर ढिग बाग तामें बैठे श्राय करि अनुराग गृह त्याग पागे स्याम सों। गांव में न जात, लोग किते हाहा खात, सुख मानि लियो गात, नहीं काम और काम सों ॥ पखौ अति मेह, देह बसन भिजाय डारे, तब हरि प्यारे बोले सुर अभिराम सों। रहै एक साह भक्त कही जाय ल्यावौ उन्हें मन्दिर करावो तेरौ भयो घर दाम सों ॥६१५॥ (१५) वात्तिक तिलक । श्रीगदाधरदासजी वैराग्य से गृह को त्याग के श्रीश्यामसुन्दर के प्रेम में पगे "बुरहानपुर” के निकट आकर विराजे । लोग बहुत प्रार्थना करते, परन्तु आप ग्राम में नहीं जाते थे अापके मन और शरीर ने यहाँ ही सुख मान लिया। आप और कामों से प्रयोजन नहीं रखते थे॥ ___ एक दिन मेघों ने जलकी बड़ी वर्षा की आपके सब वन भीग गये, भक्त का दुख देख भगवान को बड़ी दया लगी, तब एक भक्त सेठ को स्वप्न में प्रति अभिराम स्वर से प्राज्ञा दी कि तेरे घर में बहुत द्रव्व भर है इससे जा मेरे प्रियभक्त गदाधरदास को लिवा ला सुन्दर मंदिर बनवा दे । तेरे घर में श्रीलक्ष्मीजी की कृपा बनी रहेगी।