पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१८

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Antarnamameramamtarivarinaamaatrinaranevaadi m anahatrane भक्तिसुधास्वाद तिलक । (८०१) टीका । कवित्त । (४२) नीठ नीठ ल्याये हरि बचन सुनाए जव, तब करवायो ऊंची मंदिर संवारिक । प्रभु पधराये, नाम “लाल" औ "विहारी" स्याम अति अभिराम रूप रहत निहारिक ॥ करें साधुसेवा जामें निपट प्रसन्न होत, बासी न रहत अन्न सो पात्र झारिक । करत रसोई जोई राखी ही लिपाय सामा आये घर संत, आप कही “ज्याँवो प्यारिक" ॥६१६॥ (१४) वात्तिक तिलक। वैश्य भक्त ने प्रभु की आज्ञा मान आपके पास आकर ग्राम में चलने की प्रार्थना की।नहीं अंगीकार किया, तब श्रीहरि के वचन सुनाए, बड़ी कठिनता से लिवालाये, और सुन्दर विचित्र ऊंचा मन्दिर बनवाके प्रभु को पधराया। ठाकुरजी का नाम "श्रीलालविहारी" जी रुखा। अति सुन्दर श्याम स्वरूप को देखते प्रेम में मग्न हो जाते थे। सन्तों की सेवा ऐसी करते कि जिसमें साधु अति प्रसन्न होते थे, अन्न आदिक जो पाता, सो दूसरे दिन को नहीं रहता, अन्न के पात्रों को (अशेष) झार करके सोते थे। परन्तु रसोई करनेवाले कुछ सामग्री भगवत् के भोग के लिये छिपा रखते थे। एक समय रात में संत आये, श्रीगदाधरदासजी ने रसोइयों पुजारियों से कहा कि "जो कुछ सामग्री होय सो प्रीतिपूर्वक बना के भोजन करावो ॥ (८०२) टीका ! कवित्त । (४१) बोल्यौ प्रभु भूखे रहैं ताके लिये राख्यो कछू भाष्यो तब आप काढ़ो भोर और आवैगौ । करिकै प्रसाद दियौ लियो सुख पायौ सव सेवा रीति देखि कही जग नस गावेगौ ॥ प्रात भये भूखे हरि गए तीन जाम दरि रहे क्रोध भरि कहै कबधौ छुटावेगौ। आयो कोऊ ताही समै दो सत रुपैया धरे बोले गुरु "सीस लै कै मारौं कि तो पावेगौ ॥६ १७॥ (१३) बात्तिक तिलक। आपके वचन सुन शिष्य बोला कि “ठाकुरजी भूखे रह जाते