पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७३ Hernment भक्तिसुधास्वाद तिलक । रहते हैं. समस्त भगवद्भक्त जनों का पालन यों करते हैं कि जैसे पलक नेत्रगोलकों की रक्षा करते हैं। __ और तत्सुखी आज्ञाकारी यहाँ तक हैं कि उनमें श्रीजयजी और श्रीविजयजी को जब श्रीप्रभु की प्रेरणा से सनकादिकों ने तीन जन्म तक असुर होने का शाप दे दिया (पृष्ठ ६५) और उसी समय शील- सिन्धु श्रीनारायणजी प्रगट होके बोले कि “इस शाप को मेरी ही इच्छा समझ के सुधापान सरिस ग्रहण करो,” तब इतना सुन कहा कि “जो यह आपकी इच्छा है तो हमको सहस्र सुधा समान है ॥” इसमे सेवक- धर्म की रीति "हद" (सीमा) है क्योंकि नित्य सेवा का सुख छोड़े के श्रापकी आज्ञा से प्रसन्नतापूर्वक प्रतिकूलता को अर्थात् असुर भाव को भङ्गीकार किया। ऐसे रंगीले सेवक हैं॥ (३४) छप्पय । (८०९) हरि वल्लभ सब प्रार्थों, जिन चरणरेणु आसाधरी॥ कमलां गरुड़ सुनन्द आदि षोडशं प्रभु पद रति । हनुमन्तें, जामवन्त, सुग्रीव, विभीषणं, शर्वरी खगपति॥ ध्रुवं, उद्धवे, अम्बरीष, विदुर, अक्रूर, सुदामा, । चन्द्र, हासे, चित्रकेतु, ग्राह, गजें, पाण्डवं, नामा ॥ कोषारंवे, कुन्ती, बधू, पट ऐंचत लज्जा हरी । हरि वल्लभ सब प्रार्थों, जिन चरणरेणु आसा धरी॥६॥ (२०५) वार्तिक तिलक । श्रीहरि के समस्त परमप्रिय श्रीप्रभुपदप्रीतिपरायण भक्तों की प्रार्थना करता हूँ कि जिन्हके चरणरज का आसरा संसार सागर के तरने के हेतु अपने हृदय में रक्खे हुधा हूँ- (१) श्रीलक्ष्मीजी (२) श्रीगरुड़जी (३) श्रीसुनन्द प्रादि (पृष्ठ ७२) सोलहो पारषद (४) श्रीरामदासाधिपति कपीन्द्र श्रीहनुमन्तजी (५) श्रीजामवन्तजी (६) श्रीरामसखा श्रीसुग्रीवजी (७) श्रीविभी- पणजी ()श्रीशवरीजी (8) स्वगपति श्रीजटायूजी (१०) श्रीध्रुवजी