पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१

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७२ श्रीभक्तमाल सटीक । वात्तिक तिलक । मेरे चित्त की वृत्ति सर्वदा तहाँ रहै कि जहाँ श्रीनारायणजी के (पद- पंकजसेवी) पारषद हो कि, जो मंगल के करनेवाले, संसाररूपी महारोग के हरनेवाले, करुणा के स्थान, विनीत, और भावयुक्त भक्तों के प्रति- पालक हैं, जो श्रीलक्ष्मीपतिजी की सेवा करके उनको प्रसन्न करने में परम प्रवीण हैं, तथा जो भजनानन्द भक्तों की हद्द हैं अर्थात् सबमें श्रेष्ठ सीमारूप हैं। (१) श्रीविष्वकसेनजी, (६) श्रीमद्रजी, (२) श्रीसुषेनजी, (१०) श्रीसुभद्रजी, (३) श्रीजयजी, (११) श्रीचण्डजी, (४) श्रीविजयजी, (१२) श्रीपचण्डजी, (५) श्रीवलजी, (१३) श्रीकुमुदजी, (६) श्रीप्रबलजी, (१४) श्रीकुमुदाक्षजी, (७) श्रीनन्दजी, (१५) श्रीशीलजी, (८) श्रीसुनन्दजी, (१६) श्रीसुशीलजी। (३३) टीका । कवित्त । (८१०) पारषद मुख्य कह सौरह सुभाव सिद्धि सेवा ही की ऋद्धि हिये राखी बहु जोरि के । श्रीपति नारायण के प्रीणन प्रवीण महा, ध्यान करै जन पालै भाव हग कोरि के ॥ सनकादि दियो शाप, प्रेरि के दिवायो आप, प्रगट है कह्यो पियो सुधा जिमि घोरि के । गही प्रतिकूलताई जो पै यही मन भाई, याते रीति हद गाई धरी रङ्ग बोरि के ॥ २५॥ (६०४) वात्तिक तिलक। श्रीनाभाजी ने जो सोलह मुख्य पारषद कहे सो उनको स्वाभाविक सिद्ध अर्थात् नित्यमुक्त जानिये, सो प्रभु की सेवारूपी सम्पत्ति को एकही करके अपने अपने हृदय में रख ली है, श्रीलक्ष्मीपतिनारायणजी की भसनकारिणी सेवा में महा प्रवीण हैं और सर्वदा उन्हीं के ध्यान में मग्न श्रीयमराज (श्रीधर्मराज) महाभागवत की, श्रीरामनाममाहात्म्य वर्णन द्वारा श्रीभग- बद्भक्ति, अजामिल के प्रसंग में वर्णन हो ही चुकी है ।