पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३२

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९१३ भक्तिसुधास्वाद तिलक। (२२६) श्रीगिरिधरवालजी। (८१६) छप्पय । ( २७) गिरिधरन ग्वाल,गोपाल को 'सखा साँच लौ संगको॥ प्रेमी भक्त, प्रसिद्ध गान, अति गदगद बानी। अंतर प्रभु प्रीति,प्रगट रहै नाहिन छानी * ॥ नृत्य करत आमोद बेपिन तन बसन बिसारै । हाटक पट हित दान रीमि तकाल उतारै॥"मालपुरै" मंगल करन रास रच्यो,रस- ग कौ । गिरिधरन ग्वाल, गोपाल कौ, सखा साँच लौ संग कौ ॥ १६४॥ (२०) वात्तिक तिलक। श्रीगोपालीदेई के पुत्र श्रीगिरिधरग्वालजी श्रीगोपालजी के सच्चे संगी सखा थे। प्रसिद्ध प्रेमी भक्त, परम उदार और कवि थे, प्रभुयश गान करते समय में आपकी अति गद्गद बानी हो जाती थी। श्रापके अन्तर हृदय की प्रीति छिपाने से भी नहीं छिपती थी, नामगुण गाते, गुण श्रवण करते में प्रगट हो जाती थी, तब श्रीवृन्दावन के एकांत वन में प्रेमानन्द से मत्त, गुणगान कर नाचने लगते थे, तब देह के वच, व देह का भान, भूल जाते थे, जो और कोई भगवद्यश गान करने लगे, तो रीझ के अपने सुवर्ण के आभूषण और वन तत्काल उतार के दे देते थे। एक समय “मालपुर" प्राम में मंगल का करनेहारा रास रचके कराया देखके परम प्रेम रसरंग में पगके घर का सब धन वस्तु प्रभु को भेंट कर दिया।

  • "छानी"छन्न-छिपाई, ढाँकी ।

दो. "प्रेम छिपाए ना छिप, हो ही जात प्रकास । दावे दुवे ना दवे, कस्तूरी की वास।।"