पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- --- Mandali + श्रीभक्तमाल सटीक । जीके मन में दर्शन का हुलास हुअा, दोनों जाके मार्ग में बैठे, श्रीजगत- सिंहजी ब्राह्मण, वैष्णव, सिपाहियों और शतावधि मनुष्यों के साथ नंगे पाँव, सुवर्ण के कलश में जल मस्तकपर लिये, सीताराम नाम जपते चले आते थे, वे दोनों राजा देख प्रेम से भर, भूमिपर पड़, प्रणाम- कर प्रशंसा करने लगे, कि “मनुष्यदेह धरनेका फल प्राप ही ने पाया, की जो आपका श्रीप्रभु में ऐसा प्रेम है ॥" (८१५) टीका । कवित्त । (२८) नृपति जैसिंहजू सों बोल्यो “कहा नेह मेरे ? तेरी जो बहिन ताकी गंध को न पाँऊ मैं । नाम “दीपकुंवार" सो बड़ी भक्तिमान जानि, वह रसखानि ऐपै कछुक लड़ाऊँ मैं ॥ सुनि सुख भयौ भारी, हुती रिस वासों, दारी, लिये गाँव कादि फेरि दिये, हरि ध्याऊँ मैं । लिखि के पठाई "वाई करें सो करन दीजै, लीजै साधु सेवा करि निसि दिन गाऊँ मैं ॥६२३॥ (७) वार्तिक तिलक । श्रीजगतसिंहजी सुनके राजा जयसिंहजी से कहने लगे कि "मेरे क्या प्रेमभक्ति है, आपकी बहिन, जो 'दीपकुँवार' नामकी हैं, सो अवश्य बड़ी ही भक्ता हैं, और प्रेमरसकी खान ही हैं, उनके प्रेम का गंध भी मैं नहीं पासकता, हाँ, उन्हींकी प्रीति रीति देख सुनके संग प्रभाव से मुझे भी प्रभुकी ओर कुछ २ प्रेमभक्ति हुई है लाड़ लड़ाता हूँ।" ___ आपके वचन सुन जयसिंहजी को बड़ा ही आनन्द हुआ। किसी कारण से “दीपकुँवरि” से अप्रसन्नता होगई थी, सो अपनेजी से हटाकर, उनके ग्राम (जागीर) जो ले लिये थे सो सब छोड़ देकर प्रार्थनापत्र लिखकर, अपराध क्षमा कराकर, प्रसन्न किया । और अपने प्रधान मंत्रियों को लिख भेजा कि “बाईजी (बहिन)जो पूजा भजन दान साधुसेवा प्रादिक करें, सो भलेप्रकार करने देना, धनादिक जो लगे सों देना. मैं उनकी कृपा से श्रीहरि के ध्यान में लगूंगा। और भगवद् यश गान करूँगा।"