पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३४

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PR-MAHdvpng+amp + + PARAMHoment + भक्तिसुधास्वाद तिलक। कि वे कभी मरते नहीं, वे तो प्रभु के ध्यान में समा जाते हैं, श्राप लोग भी सन्तों में से मृतक बुद्धि उठा लीजिये॥" आपकी वार्ता सुन अच्छे लोगों को बहुत अच्छी लगी॥ (२२७) देवी श्रीगोपालीजी। (८१८) छप्पय । (२५) "गोपाली" जनपोषकों, जगत “जसोदा" अवतरी॥ प्रगट अंग में प्रेम नेम सों मोहन सेवा । कलिजुग कलुष न लग्यो, दासतें कबहुँ न छेवा ॥ बानी सीतल, सुखद, सहज गोबिंद धुनि लागी। लक्षन कला गंभीर, धीर, संतनि अनुरागी॥ अंतर सुद्ध सदा रहै, रसिक भक्ति निज उर धरी । "गोपाली" जनपोषकों, जगत "जसोदा अवतरी ॥ १६५ ॥ (१६) वात्तिक तिलक। श्री “गोपाली" जी हरिभक्त जनों के पोषण करने के लिये मानो श्री “यशोदा" जी ने अवतार लिया। तन मन में प्रेम प्रगट दीखता था, श्रीमोहनलाल की सेवा पूजा समम नियम से करती थीं, कलियुगकृत पाप आपके तन मन में नहीं छूगया और आपने भगवदासों से अंतर कपट कभी न किया, वाणी शीतल सुख देनेवाली बोलती, सहज ही गोविन्द नाम की धुनि लगी रहती थी, शुभ लक्षण, कलाचातुर्य, गाम्भीर्य, धीरता आदिक गुणों से सम्पन्न, और सन्तों में अति अनुराग- वती थीं। "श्रीगोपालीजी" का अन्तःकरण सदाशुद्ध रहता था, उस शुद्ध हृदय में आपने वात्सल्य रस की भक्ति धारण की । आपके पुत्र बड़े हरिभक्त हुए। (२२८) श्रीरामदासजी। (८१९) छप्पय । (२४) श्रीरामदास रसरीति सों, भली भाँति सेवत भगत ॥