पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३५

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A श्रीभक्तमाल सटीक। सीतल परम सुशील, बचन कोमल मुख निकसै। भक्त उदित रबि देखि, हृदै बारिज जिमि बिकसै॥ अति आनंद, मन उमँगि संत परिचर्या करई। चरण धोय, दंडौत, विविध भोजन बिस्तरई ॥ “बछ- वन निवास, बिस्वास हरि, जुगल चरण उर जग- मगत । श्रीरामदास रसरीति सों, भली भाँति सेवत भगत ॥ १९६॥ (१८) वात्तिक तिलक। श्रीरामदासजी परम प्रीति रसरीति से भलीभाँति भगवद्भक्तों की सेवा करते थे। अति शीतल, परम सुशील, स्वभाव से आपके मुख से सदा कोमल वचन निकलते थे, जैसे उदित सूर्य को देख कमल विकसते हैं, इसी प्रकार हरिभक्तों को देख अति प्रफुल्लित होते थे, मन में प्रति आनन्द उमँगाके, संतों की सेवा परिचर्या इस प्रकार करते थे कि प्रथम दण्डवत् कर, चरणों को धो विभव विस्तार से विविध भाँति के भोजन कराते थे। ब्रज के "वत्सवन में निवास कर, श्रीविहारीजी में विश्वासयुक्त जग- मगाते श्रीहरियुगल चरणों को हृदय में धारण किया । (२०) टीका । कवित्त । (२३) सुनि एक साधु श्रायो, भक्तिभाव देखियेकों, बैठे रामदास, पूछ "रामदास कौन है ?" । उठे आप धोए पाँव, “आवै रामदास अब," : "रामदास कहो ? मेरे चाह और गौन है" ॥ "चलो ज प्रसाद लीजै, दीजे रामदास प्रानि" “यही रामदास, पग धारौ निज भौन है"। लपटानों पायन सों, चायन समात नाहि, भायनि सों भस्यौ हिये, छाई जस जौन्हें है ॥ ६२५ ॥ (५) बात्तिक तिलक । श्रीरामदासजी की प्रीति रीति साधुसेवा की बड़ाई सुन, एक १ "जोन्ह"-उजाला ॥