पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९६५

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श्रीभक्तमाल सटीक अब तुम्हारी ही असीम कृपा से यह चौथी भावृत्ति भी पुनः तेजकुमार प्रेस से ही प्रकाशित होती है । लो, प्यारे । अपनी वस्तु तुम अपनाने की कृपा करो। जैसे तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तों को तुम्हारा चरित (मानस- रामायण) प्रिय है, वैसेही स्वयं तुमको श्रीनाभाजी कृत यह भक्ति नाम माला गले का हार है, इस रहस्य और मर्म को गोस्वामी श्री- नाभाजी और उनके शिष्य श्रीगोविन्ददासजी एवम् श्रीप्रियादासजी भली भाँति जानते हैं । यही समझकर तुम्हारे एकान्त प्रेमियों को भी यह माला विशेष प्रिय हैं और यह उनका धन ही है, इसके अनुमोदक पाठकों पर तुम्हारी कैसी कृपा रहती है इसके कहने की आवश्यकता नहीं- ___ “सो जानइ जेहि देहु जनाई"। "चार जुगन में भक्त जे, तिनके पद की धरि। . सरबस सिर धरि राखिहीं, मेरी जीवनि मूरि ॥" स्वामी पंडित श्रीप्रेमनिधि रामवल्लभाशरण माहाराजजी, पं० श्री गंगादासजी भक्तमाली, श्रीतपस्वीराम भक्तमालोजी, पं० श्रीराम नारायणदासजी तथा श्रीश्यामसुंदरीशरणजी की कृपा-जो इस दीन पर तुम्हारी प्रेरणा से हुई उसके लिये तुमको किन बचनों में और किस अन्तष्करण से धन्यवाद दूँ ॥ ___ अन्त में इस दीनकी यह भी प्रार्थना है कि तुम्हारी कृपा उन सज्जनों पर हो जिनने इस चतुर्थ संस्करण के मुद्रण में किसी प्रकार का उत्साह और श्रद्धायुत परिश्रम दिखाया है अर्थात्- (१)वाबू श्रीराधारमनजी (२) बाबू बनविहारीलाल और (३) श्रीगनेशप्रसाद (४) श्रीशीतलासहाय ॥ पुनः यह तुमको समर्पित है। बीसवीं (२०वीं) जनवरी सन् १९१६ से ही बाबू बलदेवनारायण- सिंह की यह इच्छा थी कि नवलकिशोर प्रेस इस ग्रंथ की तीसरी आवृत्ति छापने की कृपा करे परन्तु दूमरी प्रावृत्ति की सैकड़ों प्रतियाँ रहने के कारण बलदेव वाबू को सफलता नहीं हुई थी ॥ श्रीअयोध्याजी १९८३ दीन रुपिया (रूपकला)।