पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९६७

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९४८ श्रीभक्तमाल सटीक । श्रीहनुमते नमः (सन्त भगवन्त) कवित्त। "जैसे प्रभु मानुष वपुष धरि लीला करें, तैसे सुखशीला हैं चरित सब सन्त के।सठन की सिला सम कुमति सुशीला करें, भेजें भवचाप ज्यों कुदोष जे दुरन्त के ॥ विमल वचन धनु बान ही ते जावधान काम कोह लोभ मोह मारै उर अन्त के । चारों जुग जीवन उधारकारी रसराम सन्त अवतार सम राम भगवन्तके ॥१॥ (सन्त बिन कैसे कोऊ जानै भगवन्तको)। कवित्त । माया को देखाय के छिपाय भगवन्त जब तब सन्त बुद्धि सौं वतावत अनन्त को। धार भगवन्त जब मानुष वपुष तब सन्त भगवन्त कहि गावे रसवन्त को ॥ ईश्वर न कोई जीव नश्वर कुवादी कह तिन्हें सन्त जीति वाद था सीता कन्त को । नाम को सुनायके जनावै रसराम रूप सन्त विन कैसे कोऊ जानै भगवन्त को ॥२॥ कवित्त । नाम रूप लीला धाम निष्ठा रसरंगप्रेम भनी नौधा भक्ति परा प्रेमा रस पाँच है।गाई है सँचाई भरी कथा सन्तसेविन की जिनको सुनत साधु सेवा मन राँच है ॥ मिन को पूरी प्रेम नेमिन को नेह नेम कान को करत मिट मद मान आँच है।पागि पीति आभा दियो नाभा जू अलभ्य लाभा भाष्यो भक्तमाल मध्य भक्तिरूप साँच है ॥३॥ दो० "भवसागर भवरत्न बहु, भक्त सु तिनकी माल । नाभा जू आभा भरी, अर्षे हरिहिं विशाल ॥ १॥ हरि भक्तनि हिय बीस धरे,माला कंठ अमोल।। धन्य सुजन जे प्रेम ते, वाँचर्हि सुनहिं अमोल ॥ २॥ श्रीश्यामनायिकायै नमः । श्रीहंसकलायै नमः ॥ श्रीप्रेमनिधये नमः ॥