पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९६८

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२४९ -- - + - - -- - +-+ +04- + भक्तिसुधास्वाद तिलक । श्रीसिय सहचरी गोस्वामीनाभाजी (श्रीनारायणदास) दो० "भक्तमाल आचार्यवर, श्रीनाभा पदकंज।। भवसागर दृढ़ नाव पड़, वन्दौं मंगल पुज ॥ १॥ "श्रीनामा नभ उदित ससि, भक्तमाल सो जान । रसिक अनन्य चकारे है, पान करें रसखान ॥ २॥" छप्पय । "कमलनाम अज विष्णुके, त्यों अपनाभ नाभा भयो। उन हरि श्राज्ञा पाय सकल ब्रह्मांड उपायो। इन गुरु याज्ञा पाय भक्त निर्णय को गायो॥ चार युगन के भक्त गुणन की गूंथी माला। अंगहि अंग विचित्र बनी यह परम रसाला॥ ब्रजवल्लभ अचरज कहा, सीतापति जापै जयो । कमलनाभ अज विष्णुके, त्यों अनदाम नामा भयो" ॥३॥ कवित्त । नाभाजू विसाल बुद्धि प्राज्ञा धन धारि सिर, विरचे कराल शस्त्र काटने को भ्रमजाल । पढ़त अनन्द बाढ़े रसिक सु भक्त हिये, सरल मनोहर सुखद कविता रसाल ॥ भने ब्रजवल्लभ अविद्या कर अन्धकार करे दूर, सन्तनको सहज करे निहाल ! प्रेम दीप वारे उर, पतित उघारे कोदि, काग ते मराल करे, साँची ऐसी भक्तमाल ॥ ४॥ सर्वथा। भक्तन को यश पुंज बटोरे सु नाभा अलौकिक माला बनायो। ताकर दीको कियो मियादासजू सन्तन को अतिही मन भायो। त्यों बजवल्लभ रूपकला सिय किंकरि ‘भाष' अनूप लगायो। "भक्तसुधा" रस “स्वाद” ललाम सु प्रेमिन को मन मोद बढ़ायो॥५॥ सबैया । चारु सरोज सो छप्पै सुहावन सन्तन को मन भृङ्ग लुभायो। सादर पान करे रस को ज्यों चकोर मय के नेह भुलायो ।