पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९९०

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समालोचना। रामायणी कविवर श्रीरामप्रसादशरणजी। "शुद्ध अंतःकरण में विशेषरूप से वास करनेवाले प्रभु ने, अपने एक कृपापात्र (श्रीरूपकलाजी) के करकमल में विचित्र लेखनी देकर इस अर्वकार्य पर उद्यत करही तो दिया जैसी कठिन रास्ता थी वैसेही "भक्ति सुधा स्वाद" के रसिक तिलककार ने राह निकाली और वह सीधा पथ भी कैसा कि जिस पर चलने से श्रीरामकृपा से फिर कठिनता से भेंट ही न हो। सूक्ष्म विचार से तिलककार ने निस्सन्देह आवश्यकीय कार्य किया है, कि श्रीनाभाजी का मूल और साथ ही साथ श्रीप्रियादास- जी की टीका और फिर सरल भाषा में दोनों का भावार्थ, गैर ठौर पर भाषा और संस्कृत ग्रंथों के प्रमाण के साथ, कि जो अन्तःकरण से मोह की जड़ को उखाड़ कर भक्तमाल के मूल को जमा दे, वर्णन किया है । सुगमता और सरलता को देखकर शुद्धता ने भी पूरा साथ दिया। मूल, दोहे, छप्पय और कवित्तों के भावार्थ के अतिरिक्त प्रायः कठिन शब्दों के अर्थ भी लिख दिये हैं। चौथे कवित्त के अर्थ में भक्ति पंचरस का वशीकरण यन्त्र देखकर अन्तःकरण अपना तन्त्र मंत्र भूल ही जाता है।----यह तिलक, रसिक के रस का भी पता बताता है । श्रीसन्तों के चरणारविंद में तिलककार की पीति प्रतीति और सत्संग की व्यवस्था बताए देती है। छप्पय के तिलक में श्रीचरणचिह्नों का वर्णन महारामायण आदि ग्रंथों के अनुकूल और रसों की और परमात्मा जीवात्मा के चौबीस २४ सम्बन्धों की, व्याख्या कैसी विचित्र यन्त्रों में दर्शाया है कि जिसको करतल गत श्रामलक ही सा कहना चाहिए--॥ रसिक तिलककारजी ने एक सराहनीय कार्य यह भी किया है कि प्रत्येक छप्पय और कवित्त के साथ ऐसा अङ्क लगा दिया है कि जिससे सर्वत्र शीघ्र ही यह निश्चय हो सकता है कि मूल में से कितने हो चुके और कितने अब शेष रह रामप्रसादशरण दीन