पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१०

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i जीवात्मा-परमात्मामें जो भेद मालूम होता है वह प्रकृतिके कारणसे है। इस भ्रान्तिको निवृत्ति ज्ञानद्वारा होती है । द्वैत जो भासता है उसका कारण माया है। और वह माया अनिर्वचनीया है। न तो वह सत् है और न असत् है और दोनोंहीके धर्म उसमें भासते हैं। इसीलिये उसको 'अनिर्वचनीया' विशेषण दिया गया है । वास्तवमें माया भी मिथ्या है । क्योंकि सत्से असत्की उत्पत्ति सम्भव नहीं और सत्-असत्का मेल भी सम्भव नहीं और असदमें कोई शक्ति ही नहीं। अतएव जगत् केवल भ्रान्तिमात्र है और स्वप्नवत् है।' भगवान् शंकराचार्यको 'मायावादी' कहना न्यायसंगत नहीं। उन्होंने मायाका प्रतिपादन नहीं किया । जब विपक्षी दृश्यमान परन्तु मिथ्या जगत्का कारण आग्रहपूर्वक पूछता है तो मायाको, जो स्वयं मिथ्या है, बता दिया जाता है। यही कारण है कि जीवभाव वा जीवका यह अनुभव कि वह बद्ध है, वास्तबमें कल्पित है, अज्ञानके आवरणसे जीव अपने स्वरूपको भूला हुआ है और ज्ञान ही इस अज्ञानका नाशक है। भगवान् शंकराचार्य निवृत्ति-मार्गके उपदेष्टा हैं और गीताको भी उन्होंने निवृत्ति-मार्ग-प्रतिपादक ग्रन्थ माना है। उनके मतानुसार संन्यासके बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । यही उनका पुनः पुनः कथन है । परन्तु इतना ध्यान रखना उचित है कि कर्म वा प्रवृत्ति-मार्गको वे चित्त-शुद्धिके लिये आवश्यक समझते हैं । अतएव वे सभीको संन्यासका अधिकारी नहीं मानते । सञ्चा संन्यास अर्थात् विद्वत्संन्यास वही है जिसमें मनुष्य किसी वस्तुका त्याग नहीं करता वरं पके फल जैसे वृक्षसे आप ही गिर पड़ते हैं, संसारसे वह सर्वथा निर्लिप्त हो जाता है। लोहेके तप्त गोलेको हाथसे छोड़ देनेके लिये किसके आदेशकी प्रतीक्षा होती है ? गीताभाष्यमें यही सिद्धान्त भगवान् शंकराचार्यने प्रतिपादित किया है । आधुनिक संसारके इतिहाप्समें शंकर-जैसा कोई ज्ञानी और दार्शनिक दूसरा नहीं मिलता। उनके सिद्धान्तोंको समझने में यह हिन्दी-अनुवाद अत्यन्त सहायक होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं । अनुवादक महाशयके सराहनीय परिश्रमकी सफलता इसी में है कि आचार्य के सिद्धान्तोंसे हम सुगमतापूर्वक परिचय प्राप्त करें और हममें मुमुक्षुताका भाव भली प्रकार जागृत हो । काशी हिन्दूविश्वविद्यालय जीवनशङ्कर याज्ञिक आश्विन शुक्ल ४, सं० १९८८ }