पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[४] भगवान् शंकराचार्य के कुछ सिद्धान्तोंका स्थूलरूपसे वर्णन करना युक्तियुक्त है जिससे गीताभाष्यमें जो उनका दृष्टिविन्दु है वह सहजमें अवगत हो जाय । इस बातके माननेमें हमें कोई संकोच नहीं कि अनेक वाक्य गोतामें ऐसे मिल सकते हैं जिनको द्वैत और अद्वैत-सिद्धान्ती अपना प्रमाणवचन बना सकते हैं, गीताके कई मार्मिक श्लोक दोनों पक्षोंके समर्थक समझे जा सकते हैं। श्रीशंकराचार्य से पूर्व जो गीतापर भाष्य लिखे गये उनमेंसे अब एक भी नहीं मिलता । भर्तृप्रपञ्च- के भाष्यका श्रोशंकराचार्यने उल्लेख किया है और उसका खण्डन भी किया है । मर्तृप्रपञ्चके अनुसार कर्म और ज्ञान दोनोंसे मिलकर मोक्षकी प्राप्ति होती है, श्रीशंकराचार्य केवल विशुद्ध ज्ञान ही मोक्षप्राप्तिका उपाय बताते हैं। यही भेद एकायन-सम्प्रदाय और उपनिषद्म भी है। एकायनके मतमें आत्मा परमेश्वरका अंश है और उसीके आश्रित है। उपनिषद् आत्मा और ब्रह्मकी अभिन्नताका निरूपण करते हैं । उपनिषदें ज्ञान मोक्षका साधन है और एकायन प्रपत्तिसे मोक्ष मानते हैं। और गोतामें स्पष्ट ऐसे बचन हैं कि जीव ईश्वरका सनातन अंश है 'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' । और ईश्वरकी शरणागति और आश्रयमें ही उसका कल्याण है, 'मामेकं शरणं व्रज' यह सिद्धान्तवाक्य अपत्तिका पोषक है । भक्तिहीन कर्म व्यर्थ है और भक्तिहीन ज्ञान शुष्क एवं नीरस है । उपनिषद्के अनुसार प्रकृति मिथ्या है और एकायन प्रकृतिको नित्य परन्तु परमेश्वरके अधीन मानते हैं । उपनिषद्के अनुसार ज्ञानीके लिये प्रकृति विलीन हो जाती है और एकायनका मत है कि ज्ञानी प्रकृतिके खेलको देखा करता है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि पाञ्चरात्र और एकायनके सिद्धान्त गीतामें स्पष्ट मिलते हैं । परन्तु यह भी सहसा नहीं कहा जा सकता कि श्रीशंकराचार्य के सिद्धान्तोंका भी समर्थन गीता पूर्णतः नहीं करती। वैसे तो शांकरसिद्धान्तका विस्तृतरूपसे प्रतिपादन ब्रह्मसूत्रके शारीरक नामक भाष्यमें किया गया है परन्तु गीता-भाष्यसे भी वह भली प्रकार अवगत हो जाता है। सिद्धान्त अति संक्षेपसे यह है कि मनुष्य- को निष्कामभावसे स्वकर्ममें प्रवृत्त रहकर चित्तशुद्धि करनी चाहिये । चित्तशुद्धिका उपाय ही फलाकांक्षाको छोड़कर कर्म करना है । जबतक चित्तशुद्धि न होगी, जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हो सकती, बिना जिज्ञासा- के मोक्षकी इच्छा ही असम्भव है । पश्चात् विवेकका उदय होता है । विवेकका अर्थ है नित्य और अनित्य वस्तुका भेद समझना । संसारके सभी पदार्थ अनित्य हैं और केवल आत्मा उनसे पृथक् एवं नित्य है ऐसा अनुभव होनेसे विवेकमें दृढ़ता होती है, दृढ़ विवेकसे वैराग्य उत्पन्न होता है। लोक- परलोकके यावत् सुख और भोगोंके प्रति पूर्ण विरक्ति बिना वैराग्य दृढ़ नहीं होता । अनित्य वस्तुओंमें वैराग्य मोक्षका प्रथम कारण है और इसीसे शम, दम, तितिक्षा और कर्म-त्याग सम्भव होते हैं, इसके पश्चात् मोक्षका कारण जो ज्ञान है, उसका उदय होता है । बिना विशुद्ध ज्ञानके मोक्ष किसी प्रकार भी नहीं मिल सकता। न योगेन न सांख्येन कर्मणा नी न विद्यया । ब्रह्मात्मकबोधेन मोक्षः सिद्धयति जिन साधनोंका फल अनित्य है वे मोक्षके कारण हो ही नहीं सकते.। मोक्षका खरूप है जीवात्मा-परमात्माको अभिन्नताका ज्ञान । दोनों एक स्वरूप हैं, इसी ज्ञानका नाम मोक्ष है। नान्यथा ॥