पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१०८

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१२ श्रीमद्भगवद्गीता किंरूपेण, कामरूपेण काम इच्छा एव रूपम् | कैसे कामके द्वारा (ज्ञान आच्छादित है ? अस्य इति कामरूपः तेन दुष्पूरेण दुःखेन पूरणम् | इसपर कहते हैं-) कामना-इच्छा ही जिसका अस्य इति दुष्पूरः तेन अनलेन न अस्य अलं स्वरूप है, जो अति कष्टसे पूर्ण होता है तथा जो पर्याप्तिः विद्यते इति अनलः तेन ॥३९॥ अनल है, भोगोंसे कभी भी तृप्त नहीं होता, ऐसे कामनारूप त्रैरीद्वारा (ज्ञान आच्छादित है) ॥३९॥ किमधिष्ठानः पुनः कामो ज्ञानस्य ज्ञानको आच्छादित करनेवाला होनेके कारण आवरणत्वेन वैरी सर्वस्य इति अपेक्षायाम् आह जो सबका वैरी है वह काम कहाँ रहनेवाला है ? ज्ञाते हि शत्रोः अधिष्ठाने सुखेन शत्रुनिबर्हणं । अर्थात् उसका आश्रय क्या है ? क्योंकि शत्रुके शक्यते इति- रहनेका स्थान जान लेने पर सहजमें ही उसका नाश किया जा सकता है । इसपर कहते हैं--- इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैविमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥४०॥ इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः च अस्य कामस्थ इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि यह सब इस कामके अधिष्ठानम् आश्रय उच्यते । एतैः इन्द्रियादिभिः | अधिष्टान अर्थात् रहनेके स्थान बतलाये जाते हैं । आश्रयैः विमोहयति विविधं मोहयति एघ कामो यह काम इन आश्रयभूत इन्द्रियादिक द्वारा ज्ञानको ज्ञानम् आवृत्य आच्छाद्य देहिनं शरीरिणम् ॥४०॥ आच्छादित करके इस जीवात्माको नाना प्रकारसे | मोहित क्रिया करता है ॥१०॥ यत एवम् जब कि ऐसा है-- तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहिह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१॥ तस्मात् त्वम् इन्द्रियाणि आदौ पूर्व नियम्य | इसलिये हे भरतर्षभ ! तू पहले इन्द्रियोंको वशमें वशीकृत्य भरतर्षभ पाप्मानं पापाचारं कामं ! करके ज्ञान और विज्ञानके नाशक इस ऊपर प्रजहिहि परित्यज, एनं प्रकृतं वैरिणं ज्ञानविज्ञान- बतलाये हुए वैरी पापाचारी कामका परित्याग कर। ज्ञानं शास्त्रत आचार्यतः च आत्मादीनाम् | अभिप्राय यह कि शास्त्र और आचार्यके उपदेशसे जो आत्मा-अनात्मा और विद्या-अविद्या अवबोधः, विज्ञानं विशेषतः तदनुभवः तयोः | आदि पदार्थों का बोध होता है उसका नाम 'ज्ञान' है, एवं उसका जो विशेषरूपसे अनुभव है उसका नाम ज्ञानविज्ञानयोः श्रेय प्राप्तिहेत्वोः नाशनं | विज्ञान है, अपने कल्याणकी प्राप्तिके कारणरूप उन ज्ञान और विज्ञानको यह काम नष्ट करनेवाला प्रजहिहि आत्मनः परित्यज इत्यर्थः ॥४१॥ | है, इसलिये इसका परित्याग कर ॥४१॥ नाशनम्।