पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय ४ एवं क्षत्रियपरम्पराप्राप्तम् इमं राजर्षयो राजानः इस प्रकार क्षत्रियोंकी परम्परासे प्राप्त हुए इस च ते ऋषयः च राजर्षयो विदुः इमं योगम् । योगको राजर्षियोंने—जो कि राजा और ऋषि दोनों थे-जाना। स योगः कालेन इह महता दीपेण नष्टो हे परन्तप ! (अब ) वह योग इस मनुष्यलोकमें विच्छिन्नसम्प्रदायः संवृत्तो हे परंतप, आत्मनो | बहुत कालसे नष्ट हो गया है, अर्थात् उसकी सम्प्रदाय- परम्परा टूट गयी है । अपने विपक्षियोंको पर कहते हैं, विपक्षभूताः पर उच्यन्ते तान् शौर्यतेजोगभ- उन्हें जो शौर्यरूप तेजकी किरणोंके द्वारा सूर्यके स्तिभिः भानुः इव तापयति इति परंतपः समान तपाता है वह परन्तप यानी शत्रुओंको तपाने- शत्रुतापन इत्यर्थः ॥२॥ वाला कहा जाता है ॥२॥ दुर्बलान् अजितेन्द्रियान प्राप्य नष्टं योगम् अजितेन्द्रिय और दुर्बल मनुष्योंके हाथमें पड़कर इमम् उपलभ्य लोकं च अपुरुषार्थसंबन्धिनम्- | यह योग नष्ट हो गया है, यह देखकर और साथ ही लोगोंको पुरुषार्थरहित हुए देखकर-- स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥ ३ ॥ स एव अयं मया ते तुभ्यम् अद्य इदानीं योगः वही यह पुराना योग, यह सोचकर कि तू मेरा प्रोक्तः पुरातनः । भक्तः असि मे सखा च असि भक्त और मित्र है, अब मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि इति । रहस्यं हि यस्माद् एतद् उत्तमं योगो ज्ञानम् इत्यर्थः ॥३॥ यह ज्ञानरूप योग बड़ा ही उत्तम रहस्य है ॥३॥ भगवता विप्रतिषिद्धम् उक्तम् इति मा भूत भगवान्ने असंगत कहा, ऐसी धारणा किसीकी कस्यचिद् बुद्धिः इति परिहारार्थ चोद्यम् इच न हो जाय, अतः उसको दूर करनेके लिये शंका कुर्वन्- करता हुआ-सा- अर्जुन उवाच-- अर्जुन बोला--- अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४॥ अपरम् अर्वाग् वसुदेवगृहे भवतो जन्म, परं । आपका जन्म तो अर्वाचीन है अर्थात् अभी वसुदेवके घरमें हुआ है और सूर्यकी उत्पत्ति पूर्वसर्गादौ जन्म उत्पत्तिः विवस्वत आदित्यस्य। पहले-सृष्टिक आदिमें हुई थी। तत् कथम् एतद् विजानीयाम् अविरुद्धार्थतया इस बातको अविरुद्धार्थयुक्त ( सुसंगत) यः त्वम् एव आदौ प्रोक्तवान् इमं योगम्, स एव कैसे समझू कि जिन आपने इस योगको आदि- त्वम् इदानीं मह्यं प्रोक्तवान् असि इति ॥ ४॥ कालमें कहा था, वहीं आप अब मुझसे कह रहे हैं ॥४॥ 19300-