पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/११०

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चतुर्थोऽध्यायः या अयं योगः अध्यायद्वयेन उक्तो ज्ञान-! - कर्मयोग जिसका उपाय है ऐसा जो यह संन्यास- सहित ज्ञाननिष्टारूप योग पूर्वके दो अध्यायोंमें निष्ठालक्षणः ससंन्यासः कर्मयोगोपायः, (दूसरे और तीसरेमें ) कहा गया है, जिसमें कि यस्मिन् वेदार्थः परिसमाप्तः प्रवृत्तिलक्षणो वेदका प्रवृत्तिधर्मरूप और निवृत्तिधर्मरूप दोनों निवृत्तिलक्षणः च, गीतासु च सर्वासु अयम् गीता में भी भगवान्को 'योग' शब्दसे यही (ज्ञानयोग) प्रकारका सम्पूर्ण तात्पर्य आ जाता है, आगे सारी एव योगो विवक्षितो भगवता अतः परिसमाप्तं विवक्षित है । इसलिये वेदके अर्थको (ज्ञानयोगमें) परिसमाप्त यानी पूर्णरूपसे आ गया समझकर वेदार्थ मन्यानः तं वंशकथनेन स्तौति भगवान् वंशपरम्पराकथनसे उस (ज्ञाननिष्टारूप श्रीभगवान्- योग) की स्तुति करते हैं--- श्रीभगवानुवाच- श्रीभगवान् बोले- इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥१॥ इमम् अध्यायद्वयेन उक्तं योगं विवखते आदि- जगत्-प्रतिपालक क्षत्रियोंमें बल स्थापन करनेके त्याय सर्गादौ प्रोक्तवान् अहं जगत्परिपाल- लिये मैंने उक्त दोअध्यायोंमें कहे हुए इस योगको पहले यितॄणां क्षत्रियाणां बलाधानाय । तेन योग- सृष्टिके आदिकालमें सूर्यसे कहा था। (क्योंकि) उस योगबलसे युक्त हुए क्षत्रिय, ब्रह्मत्वकी रक्षा करने में बलेन युक्ताः समर्था भवन्ति ब्रह्म परिरक्षितुम् । समर्थ होते हैं तथा ब्राह्मण और क्षत्रियोंका पालन ब्रह्मक्षत्रे परिपालिते जगत्परिपालयितुम् अलम्। ठीक तरह हो जानेपर ये दोनों सब जगत्का पालन अनायास कर सकते हैं। अव्ययम् अव्ययफलत्वात् । न हि अस्य इस योगका फल अविनाशी है इसलिये यह सम्यग्दर्शननिष्ठालक्षणस्य मोक्षाख्यं फलं व्येति। अव्यय है, क्योंकि इस सम्यक् ज्ञाननिष्ठारूप योगका मोक्षरूप फल कभी भी नष्ट नहीं होता। स च विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे उस सूर्यने यह योग अपने पुत्र मनुसे कहा स्वपुत्राय आदिराजाय अब्रवीत् ॥१॥ और मनुने अपने पुत्र सबसे पहले राजा बननेवाले इक्ष्वाकुसे कहा ॥१॥ एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ॥२॥