पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३५

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शांकरभाष्य अध्याय ४ तत्र अधुना सम्यग्दर्शनस्य यज्ञत्वं संपाद्य उपर्युक्त श्लोकमें यथार्थ ज्ञानको यज्ञरूपसे तत्स्तुत्यर्थम् अन्ये अपि यज्ञा उपक्षिप्यन्ते दैवम् सम्पादन करके अब उसकी स्तुति करनेके लिये एक इत्यादिना--- 'दैवम् एव' इत्यादि श्लोकोंसे दूसरे-दूसरे यज्ञोंका भी उल्लेख किया जाता है-~- दैवमेबापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते । ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥ २५॥ दैवम् एव देवा इज्यन्ते येन यज्ञेन असौ दैवो जिस यज्ञके द्वारा देवोंका पूजन किया जाता यज्ञः तम् एव अपरे यज्ञं योगिनः कर्मिणः है वह देव-सम्बन्धी यज्ञ है, अन्य (कितने ही) योगी पर्युपासते कुर्वन्ति इत्यर्थः। अर्थात् कर्म करनेवाले लोग उस दैव-यज्ञका ही अनुष्ठान किया करते हैं। ब्रह्माग्ने 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (त० उ०२। अन्य (ब्रह्मवेत्ता पुरुष) ब्रह्माग्निमें (हवन करते हैं) १) विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' (बृ० उ० ३ १९१२८) | अर्थात् 'ब्रह्म सत्य-ज्ञान-अनन्तस्वरूप है' 'विज्ञान 'यत्साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः' (वृ० (प्रत्यक्ष) है वह ब्रह्म है, जो सर्वान्तर आत्मा है और आनन्द ही ब्रह्म है 'जो साक्षात् अपरोक्ष उ०३।४।१) इत्यादिवचनोक्तम् अशनायादि- वह ब्रह्म है इत्यादि बचनोंसे जिसका वर्णन किया सर्वसंसारधर्मवर्जितम्, नेति नेति इति निरस्ता- गया है, जो भूख-प्यास आदि समस्त सांसारिक शेषविशेषं ब्रह्मशब्देन उच्यते । धर्मोंसे रहित है, जो ऐसा नहीं' 'ऐसा नहीं इस प्रकार | वेदवाक्योंद्वारा सब विशेषणोंसे परे बतलाया गया है, वह ब्रह्म शब्दसे कहा जाता है। ब्रह्म च तद् अग्निः च स होमाधिकरणत्व- हवनका अधिकरण बतलानेके लिये उस ब्रह्मको विवक्षया ब्रह्माग्निः तस्मिन् ब्रह्माग्नौ अपरे अन्ये ! ही यहाँ अग्नि कह दिया है । उस ब्रह्मरूप अग्निमें ब्रह्मविदः, यज्ञं यज्ञशब्दवाच्य आत्मा आत्म- कितने ही ब्रह्मवेत्ता-ज्ञानी यज्ञद्वारा यज्ञको बन नामसु यज्ञशब्दस्य पाठात् तम् आत्मानं यज्ञं करते हैं । आत्माके नामोंमें यज्ञ शब्दका पाठ परमार्थतः परम् एव ब्रह्म सन्तं बुद्धयाधुपाधि- होनेसे आत्माका नाम यज्ञ है जो कि वास्तव में परब्रह्म ही है, परन्तु बुद्धि आदि उपाधियोंसे संयुक्तम् अध्यरतसर्वोपाधिधर्मकम् आहुतिरूपं | युक्त हुआ उपाधियोंके धर्मों को अपनेमें मान रहा यज्ञेन एव आत्मना एव उक्तलक्षणेन उपजुति है। उस आहुतिरूप आत्माको उपर्युक्त आत्माद्वारा प्रक्षिपन्ति । ही हवन करते हैं। सोपाधिकस्य आत्मनो निरूपाधिकेन सारांश यह कि उपावियुक्त आत्माको जो उपाधि- परब्रह्मस्वरूपेण एव यद् दर्शनं स तस्मिन् रहित परब्रह्मरूपसे साक्षात् करना है, वही उसका होमः तं कुर्वन्ति ब्रह्मात्मैकत्वदर्शननिष्ठाः उसमें हवन करना है; ब्रह्म और आत्माके एकत्वज्ञान में संन्यासिन इत्यर्थः । स्थित हुए वे संन्यासी लोग ऐसा हवन किया करते हैं ।