पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३४

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श्रीमद्भगवद्गीता अनर्थकं स्यात् । अत्र चसमर्थम् इदं वचनं ब्रह्मार्पणम् इत्यादि तथा इस प्रकरणमें जो 'ब्रह्मार्पणम्' इत्यादि ज्ञानस्य यज्ञत्वसंपादने अन्यथा सर्वस्व ब्रह्मत्वे वचन है, यह ज्ञानको यज्ञरूपसे सम्पादन करने में समर्थ भी है, नहीं तो वास्तवमें सब कुछ ब्रह्मरूप अर्पणादीनाम् एव विशेषतो ब्रह्मत्वाभिधानम् होनेके कारण केवल अर्पण (स्रुव) आदिको ही अलग करके ब्रह्मरूपसे विधान करना व्यर्थ होगा। ये तु अर्पणादिषु प्रतिमायां विष्णुदृष्टिवद् जो ऐसा कहते हैं कि यहाँ मूर्ति विष्णु आदि- की दृष्टिके सदृश या नामादिमें ब्रह्मबुद्धिकी भाँति ब्रह्मदृष्टिः क्षिप्यते नामादिषु इव च इति ब्रुवते अर्पण ( त्रुब ) आदि यज्ञकी सामग्रीमें ब्रह्मबुद्धि न तेषां ब्रह्मविद्या उक्ता इह विवक्षिता स्याद् स्थापन करायी गयी है, उनकी दृष्टि से सम्भवतः इस प्रकरणमें ब्रह्मविद्या नहीं कही गयी है । अर्पणादिविषयत्वाद् ज्ञानस्य । | क्योंकि ( उनके मतानुसार ) ज्ञानका विषय स्रुव आदि यज्ञको सामग्री ही है, ब्रह्म नहीं । न च दृष्टिसंपादनज्ञानेन मोक्षफलं प्राप्यते इस प्रकार केवल ब्रह्मदृष्टिसम्पादनरूप ज्ञानसे 'ब्रह्मैव तेन गन्तव्यम्' इति च उच्यते । विरुद्धं मोक्षरूप फल नहीं मिल सकता और यहाँ (स्पष्ट ही) च सम्यग्दर्शनम् अन्तरेण मोक्षफलं प्राप्यते यह कहा है कि उसके द्वारा प्राप्त किया जानेवाला फल ब्रह्म ही है फिर बिना यथार्थ ज्ञानके मोक्षरूप इति । फल मिलता है-यह कहना सर्वथा विपरीत है। प्रकृतिविरोधः च । सम्यग्दर्शनं च प्रकृतं इसके सिवा ( ऐसा मान लेनेसे) प्रकरणमें भी 'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्' इत्यत्र अन्ते च | विरोध आता है । अभिप्राय यह है कि जो कर्ममें | अकर्म देखता है' इस प्रकार यहाँ आरम्भमें सम्यक् सम्यग्दर्शनं तस्य एव उपसंहारात् । | ज्ञानका ही प्रकरण है तथा उसीमें उपसंहार होनेके कारण अन्तमें भी यथार्थ ज्ञान का ही प्रकरण है। 'श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः 'ज्ञानं लब्ध्वा क्योंकि 'द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठतर है' 'ज्ञानको पाकर परम शान्तिको परांशान्तिम्' इत्यादिना सम्यग्दर्शनस्तुतिम् एव तुरन्त ही प्राप्त हो जाता है' इत्यादि वचनोंसे कुर्वन् उपक्षीणः अध्यायः। यथार्थ ज्ञानकी स्तुति करते हुए ही यह अध्याय समाप्त हुआ है। तत्र अकस्माद् अर्पणादौ ब्रह्मदृष्टिः अप्रकरणे फिर बिना प्रकरण अकस्मात् मूर्तिमें विष्णु- प्रतिमायाम् इव विष्णुदृष्टिः उच्यते इति दृष्टिकी भाँति स्रुव आदिमें ब्रह्मदृष्टिका विधान अनुपपन्नम् । बतलाना उपयुक्त नहीं। तस्माद् - यथाव्याख्यातार्थ एव अयं सुतरां जिस प्रकार इसकी व्याख्या की गयी है श्लोकः ॥२४॥ इस श्लोकका अर्थ वैसा ही है ॥२४॥