पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१४

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भाष्यमें मूल श्लोकके जो शब्द आये हैं, वे दूसरे टाइयोंमें, तथा जहाँ प्रतीक आये हैं, वे दूसरे टाइपोंमें दिये गये हैं। मूल श्लोकके पदोंका आगे-पीछेका सम्बन्ध जोड़ने के लिये भाष्यकारने जैसा लिखा है वैसा ही कर दिया गया है परन्तु सभी जगह यह बात हिन्दीमे लिखकर नहीं जनायी जा सकी, अतः कहीं-कहीं तो टिप्पणी में इसका स्पष्टीकरण कर दिया है, कहीं श्लोकके अन्तये लिखा गया है और कहीं उसके अनुसार कार्य कर दिया गया है, शब्दोंका अर्थ नहीं दिया गया है। आचार्यने समासोका जो विग्रह दिखाया है, उसके सम्बन्ध भी यही बात है। जहाँतक बन पड़ा है, उसी प्रणालीसे अनुवाद में समालका विग्रह दिखलानेकी चेष्टा की गयी है, परन्तु जहाँ भाषाकी शैली बिगड़ती दिखलायी दी है वहाँ उस विनहले अनुकूल केवल अर्थ लिख दिया गया है, विग्रह नहीं दिखलाया गया है। पाठकमया मेरी असुविधाओंको देखकर इसके लिये क्षमा करेंगे। आचार्यने श्रुति-स्मृति-पुराण-इतिहासोंके जो प्रमाण उद्धृत किये हैं, वे किस ग्रन्थके किस स्थलके हैं, यह भी दिखलाने की चेष्टा की गयी है। वहाँ जिन सांकेतिक चिह्नौका प्रयोग किया गया है, उनकी सूची अलग छपी है। अनुवादमें पर्याय बतलानेके लिये कहीं अर्थात् शब्दले तथा कहीं (-) डैससे काम लिया गया है। समास करनेके लिये () छोटी लाइन लगायी गयी है। प्रकाशककी प्रार्थनापर काशी हिन्दूविश्वविद्यालयके विद्वान् प्रोफेसर सम्मान्य पं० जीवनशंकरजी याक्षिक एम० ए० महोदयने इस अन्धकी सुन्दर भूमिका लिखनेकी कृपाकी है, इसके लिये मैं उनका हृदयसे कृतज्ञ हूँ। विनीत हरिकृष्णदास गोयन्दका 496684 I क्षमा-प्रार्थना परमार्थ प्रिय प्रेमी प्राहकोंने इस पुस्तकको आदर देकर इसके दो संस्करण जल्दी विक जानेमें जो हमें सहायता दी उसके लिये हम सबके कृतज्ञ इस बार अनुवादक महोदयने इसमें यत्र-तत्र और भी आवश्यक संशोधन और परिवर्तन कर दिया है । संशोधनके सम्बन्धमें जिन-जिन सजनोंने अपनी मूल्यवान् सम्मति दी थी उनके हम आभारी हैं। इस संस्करणको भी प्रेमपूर्वक अपनानेकी मननशील सजनोंसे प्रार्थना है। विनीत प्रकाशक