पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१३

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[ २ ] अच्छे विद्वान्को दिखलाकर संशोधन करवाये बिना छपानेका साहस नहीं हुआ। इस बार मेरे प्रार्थना करनेपर श्रीविशुद्धानन्द सरस्वती-अस्पताल कलकत्ताके प्रसिद्ध वैद्य पं० श्रीहरिवक्षजी जोशी काव्य-सांख्य-स्मृति-तीर्थ महोदयने प्रायः एक मासतक कठिन परिश्रम करके समस्त ग्रन्थको मूल भाध्यके साथ अक्षरशः मिलाकर यथोचित संशोधन कर देने की कृपा की। इसीसे आज यह आप- लोगोंकी सेवामें मुद्रितरूपमै उपस्थित किया जा सका है। इस कृपाके लिये मैं सम्मान्य श्रीजोशीजी महाराजका हृदयसे कृतज्ञ हूँ। अपनी अल्पबुद्धि और सीमित सामर्थ्य के अनुसार यथासाध्य मैंने सरल हिन्दीमें आचार्यका भावज्यों-का-त्यों रखने की चेष्टा की है, तथापि मैं यह कह नहीं सकता, मैं इसमें सम्पूर्णतया सफल हुआ हूँ। एक तो परम तात्त्विक विषय, दूसरे आचार्यकी लिखी हुई उस कालकी कठिन संस्कृत, जिसमें बड़े-बड़े विद्वान् भी गीतासम्बन्धी विषयका अध्ययन कम होने के कारण भ्रममें पड़ जाया करते हैं, मुझ-जैसा साधारण मनुष्य सर्वथा भ्रमरहित होनेका दावा कैसे कर सकता है ? तथापि भगवत्कृपासे जो कुछ हो सका है, वह आपके सामने है। विषयकी कठिनतासे कहीं-कहीं वाक्य- रचनामें कठिनता आ गयी हो तो सहृदय पाठक क्षमा करें। ऐसे ग्रन्थके अनुवाद किन-किन कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है और अपनी स्वतन्त्रताको छोड़कर पराधीनताके किन-किन नियमों में कैसे बँध जाना पड़ता है, इसका अनुभव उन्हीं पाठक और लेखक महोदयों को है जो कभी इस प्रकारका कार्य कर चुके हैं, या कर रहे हैं। भगवान् श्रीकृष्णाके परम अनुग्रहले मुझ-सरीखे व्यक्तिको आचार्यकृत भाष्यके किञ्चित् मननका सुअवसर प्राप्त हुआ, यह मेरे लिये बड़े ही सौभाग्यका विषय है। श्रद्धेय विद्वन्मण्डली और गीताप्रेमी महानुभाचोसे प्रार्थना है कि वे बालक्षके इस प्रयासको स्नेहपूर्वक देखें और जहाँ कहीं प्रमादयश भूल रह गयी हो, उसे बतलानेकी कृपा अवश्य करें, जिससे मुझे अपनी भूलोंको सुधारनेका अवसर मिले और यदि सम्भव हो तो आगामी संस्करणमें भूल सुधार दी जाय । यद्यपि मैं मराठी नहीं जानता, तथापि जहाँ कुछ विशेष समझनेकी आवश्यकता हुई है वहाँ मैंने पूना आचार्यकुलके आचार्यभक्त पं० श्रीविष्णु वामन वापट शास्त्रीजी कृत मराठी भाष्यार्थसे सहायता ली है, इसके लिये मैं पण्डितजीका कृतशहूँ। एक बात ध्यान में रखनी चाहिये । अनुवाद कैसा ही क्यों न हो, जो आनन्द और स्वारस्य मूल ग्रन्थमे होता है वह अनुवादमें नहीं आ सकता। इसी विचारसे इसमें मूल भाष्य भी साथ रक्खा गया है। साधारण संस्कृत जाननेवाले सजन भी आचार्यके मूल लेखको सहज ही समझ सके, इसके लिये भाष्यके पद अलग-अलग करके और वाक्योंके छोटे-छोटे भाग करके लिखे गये हैं। व्याकरण के नियमानुसार यदि इसमें किसी प्रकारकी त्रुटि जान पड़े तो विद्वान् महोदयगण क्षमा करें। जहाँ शास्त्रार्थकी पद्धतिसे भाष्य लिखा गया है वहाँ अनुवादमें पूर्वपक्ष और उत्तरपक्षकी कल्पना करके 'पू०-' और 'उ०-' शब्द लिख दिये गये हैं । आशा है, पाठकोंको इससे विषयके समझने में बहुत सुविधा होगी।