पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१५२

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font FOR श्रीमद्भगवद्गीता प्रशस्सतरं च अनुष्ठेयम् अतः च यत् श्रेयः जो श्रेष्ठतर हो उसीका अनुष्टान करना चाहिये, प्रशस्यतरस् एतयोः कर्मसंन्यासकर्मानुष्ठानयोः । इसलिये इन कर्मसंन्यास और कर्मयोगमें जो श्रेष्ठ यदनुष्ठानात् श्रेयोऽवाप्तिः मम स्याद् इति हो अर्थात् जिसका अनुष्ठान करनेसे आप यह मन्थसे तद् एकम् अन्यतरत् सहैकपुरुषानुष्ठेयत्वा- मानते हैं कि मुझे कल्याणकी प्राप्ति होगी, उस भलीभाँति निश्चय किये हुए एक ही अभिप्रायको संभवात् मे ब्रूहि सुनिश्चितम् अभिप्रेतं तव अलग करके कहिये, क्योंकि एक पुरुषद्वारा एक इति ॥१॥ साथ दोनोंका अनुष्ठान होना असम्भव है।॥१॥ खाभिप्रायम् आचक्षाणो निर्णयाय- अर्जुनके प्रश्नका निर्णय करनेके लिये भगवान् श्रीभगवान् उवाच- अपना अभिप्राय बतलाते हुए बोले---- संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥२॥ संन्यासः कर्मणां परित्यागः कर्मयोगः च तेषाम् | संन्यास-कर्मोंका परित्याग और कर्मयोग-उनका अनुष्ठानं तो उभौ अपि निःश्रेयसकरौं निःश्रेयस अनुष्ठान करना, ये दोनों ही कल्याणकारक मोक्षं कुर्वाते । | अर्थात् मुक्तिके देनेवाले हैं। ज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वेन उभौ यद्यपि निःश्रेयस- यद्यपि ज्ञानकी उत्पत्तिमें हेतु होनेसे ये दोनों ही करौ तथापि तयोः तु निःश्रेयसहेत्वोः कल्याणकारक हैं तथापि कल्याणके उन दोनों कारणों- कर्मसंन्यासात् केवला' कर्मयोगो विशिष्यते इति | में ज्ञानरहित केवल संन्यासकी अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ट कर्मयोग स्तौति ॥२॥ है। इस प्रकार भगवान् कर्मयोगकी स्तुति करते हैं ।।२।। कसात्, इति आह- (कर्मयोग श्रेष्ठ ) कैसे है ? इसपर कहते हैं- ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङक्षति । निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥३॥ ज्ञेयो ज्ञातव्यः स कर्मयोगी नित्यसंन्यासी उस कर्मयोगीको सदा संन्यासी ही समझना इति, यो न द्वेष्टि किंचित् न काति, दुःखसुखे चाहिये, कि जो न तो द्वैप करता है और न किसी तत्साधने च एवंविधो यः कर्मणि वर्तमानः वस्तुकी आकांक्षा ही करता है । अर्थात् जो सुख, दुःख और उनके साधनोंमें उक्त प्रकारसे राग-द्वेष- अपि स नित्यसंन्यासी इति ज्ञातव्य इत्यर्थः रहित हो गया है, वह कर्ममें बर्तता हुआ भी सदा संन्यासी ही है ऐसे समझना चाहिये । निर्द्वन्द्वो द्वन्द्ववर्जितो हि यस्मात् महाबाहो सुखं क्योंकि हे महाबाहो! राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित | हुआ पुरुष सुखपूर्वक अनायास ही बन्धनसे मुक्त बन्धाद् अनायासेन प्रमुच्यते ॥३॥ हो जाता है॥३॥