पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय ५ लिप्यते न स पापेन संबध्यते पद्मपत्रम् इव अम्भसा उदकेन ॥१०॥ वह, जैसे कमलका पत्ता जलमें रहकर भी उस- से लिप्त नहीं होता, वैसे ही पापोंसे लिप्त नहीं होता ॥ १०॥ केवलं सत्वशुद्धिमात्रफलम् एव तस्य कर्मणः उसके कर्मों का फल तो केवल अन्तःकरणकी स्यात्, यसात- शुद्धिमात्र ही होता है, क्योंकि- कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्ग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥११॥ कायेन देहेन मनसा बुद्ध्या च केवलैः ममत्व- योगी लोग केवल यानी 'मैं सब कर्म ईश्वरके वर्जितैः ईश्वराय एवं कर्म करोमि न मम : लिये ही करता हूँ,अपने फलके लिये नहीं।' इस भाव- से जिनमें ममत्वबुद्धि नहीं रही है ऐसे शरीर, मन, फलाय इति ममत्वबुद्धिशून्यैः इन्द्रियैः अपि, केवलशब्दः कायादिभिः अपि प्रत्येकं संबध्यते बुद्धि और इन्द्रियोंसे फलविषयक आसक्तिको छोड़- कर आत्मशुद्धिके लिये अर्थात् अन्तःकरणकी शुद्धिके सर्वच्यापारेषु ममतावर्जनाय, योगिनः कर्मिणः लिये कर्म करते हैं । सभी क्रियाओंमें ममताका निषेत्र कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वा फलविषयम् आत्मशुद्धये करनेके लिये 'केवल' शब्दका काया आदि सभी सत्त्वशुद्धये इत्यर्थः। शब्दोंके साथ सम्बन्ध है। तस्मात् तत्र एव तव अधिकार इति कुरु तेरा भी उसीमें अधिकार है, इसलिये तू भी कर्म एव ॥११॥ कर्म ही कर ॥ ११॥ क्योंकि- युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ १२ ॥ युक्त ईश्वराय कर्माणि न मम फलाय इति ! 'सत्र कर्म ईश्वरके लिये ही हैं, मेरे फलके लिये एवं समाहितः सन् कर्मफलं त्यक्त्वा परित्यज्य नहीं' इस प्रकार निश्चयबाला योगी, कर्मफलका शान्ति मोक्षाख्याम् आप्नोति नैष्ठिकी निष्ठायां त्याग करके ज्ञाननिष्ठामें होनेवाली मोक्षरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है। सत्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिसर्वकर्मसंन्यासज्ञान- यहाँ पहले अन्तःकरणकी शुद्धि, फिर ज्ञानप्राप्ति, फिर सर्व-कर्म-संन्यासरूप ज्ञाननिष्ठाकी प्राप्ति-इस निष्ठाक्रमेण इति वाक्यशेषः। प्रकार क्रमसे परम शान्तिको प्राप्त होता है, इतना वाक्य अधिक समझ लेना चाहिये । । भवाम् ।